________________ इक्कीसवाँ अवगाहनासंस्थानपद]] [449 असंख्यातवें भाग (प्रमाण) है, (और) उत्कृष्टतः सात हाथ की है / (तथा) (उनकी) उत्तरवं क्रिया अवगाहना जघन्यतः अंगुल के संख्यातवें भाग-(प्रमाण) है (और) उत्कृष्टतः एक लाख योजन की है / [2] एवं जाव थणियकुमाराणं / [1532-2] इसी प्रकार (असुरकुमारों की शरीरावगाहना के समान) (नागकुमार देवों से लेकर) यावत् स्तनित-कुमार देवों (तक) की (भवधारणीया और उत्तरवैक्रिया शरीरावगाहना जघन्यतः और उत्कृष्टतः) (समझ लेनी चाहिए।) [3] एवं ओहियाणं वाणमंतराणं / [1532-3] इसी प्रकार (पूर्ववत्) औधिक (समुच्चय) वानव्यन्तर देवों की (उभयरूपा जघन्य-उत्कृष्ट शरीरावगाहना समझ लेनी चाहिए / ) [4[ एवं जोइसियाण वि। |1532-4] इसी तरह ज्योतिष्क दवों की (उभयरूपा जघन्य-उत्कृष्ट शरीरावगाहना) भो (जान लेनी चाहिए।) [5] सोहम्मोसाणगदेवाणं एवं चेव उत्तरवेउब्धिया जाव अच्चुओ कप्पो / णवरं सणंकुमारे भवधारणिज्जा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं छ रयणोओ, एवं माहिदे वि, बंभलोयलंतगेसु पंच रयणीयो, महासुक्क-सहस्सारेसु चत्तारि रयणीओ, आणय-पाणय-आरण-अच्चुएसु तिपिण रयणीओ। [1532-5] सौधर्म और ईशानकल्प के देवों की यावत् अच्युतकल्प के देवों तक की भवधारणीया शरीरावगाहना भी इन्हीं के समान समझनी चाहिए, उत्तरवैक्रिया शरीरावगाहना भी पूर्ववत् समझनी चाहिए / विशेषता यह है कि सनत्कुमार कल्प के देवों की भवधारणीया शरीरावगाहना जघन्य अंगल के असंख्यातवें भाग (-प्रमाण) है और उत्कृष्ट छह हाथ की है. इतनी ही माहेन्द्र कल्प के देवों की शरीरावगाहना होती है। ब्रह्मलोक और लान्तक कल्प के देवों की शरीरावगाहना पांच हाथ की (तथा) महाशुक्र और सहस्रार कल्प के देवों की शरीरवगाहना चार हाथ की, (एव) ग्रान्त, प्राणत, पारण और अच्युतकल्प के देवों की शरीरावगाहना तीन हाथ की होती है। [6] गेवेज्जगकप्पातीतवेमाणियदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? गोयमा ! गेवेज्जगदेवाणं एगा भवधारणिज्जा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, सा जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं दो रयणीओ। [1532-6 प्र.] भंते ! वेयक-कल्पातीत-वैमानिकदेव-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! | वेयक देवों की एक मात्र भवधारणीया शरीरावगाहना होती है / वह जघन्यत: अंगुल के असंख्यातवें भाग (-प्रमाण) और उत्कृष्टतः दो हाथ की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org