Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 444] [प्रज्ञापनासूत्र (1524-1 प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक पंचेन्द्रियों का वैक्रिय शरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! (वह) अनेक संस्थानों वाला कहा गया है / [2] एवं जलयर-थलयर-खहयराण वि। थलयराण चउप्पय-परिसप्पाण वि। परिसप्पाण उरपरिसप्प-भुयपरिसप्पाण वि। [1524-2] इसी प्रकार (समुच्चय तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों की तरह) जलचर, स्थलचर और खेचरों (के वैक्रिय शरीरों) का संस्थान भी (नाना प्रकार का कहा गया है / ) तथा स्थलचरों में चतुष्पद और परिसॉं का और परिमों में उर:परिसर्प और भुजपरिसर्पो के (वैक्रियशरीर) का (संस्थान भी नाना प्रकार का समझना चाहिए।) 1525. एवं मणसपंचेंदियवेउब्वियसरीरे वि। [1525] इसी (तियंञ्चपंचेन्द्रियों की) तरह मनुष्य पंचेन्द्रियों का (वैक्रियशरीर) भी (नाना संस्थानों वाला कहा गया है।) 1526. [1] असुरकुमारभवणवासिदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे णं भंते ! किसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! असुरकुमाराणं देवाणं दुविहे सरीरे पण्णते। तं जहा-भवधारणिज्जे य उत्तरकेउविए य / तत्थ णं जे से भवधारणिज्जे से णं समचउरंससंठाणसंठिए पण्णत्ते / तत्थ णं जे से उत्तरवेउन्धिए से णं णाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते। [1526-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार-भवनवासी देव-पंचेन्द्रियों का वैक्रियशरीर किस संस्थान का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! असुरकुमार देवों का (वैक्रिय) शरीर दो प्रकार का कहा गया है ? –भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। उनमें से जो भवधारणीय शरीर है, वह समचतुरस्र-संस्थान वाला होता है, तथा जो उत्तर वैक्रियशरीर है, वह अनेक प्रकार के संस्थान वाला होता है। [2] एवं जाव थणियकुमारदेवपंचेंदियवेउब्वियसरीरे / [1526-2] इसी प्रकार (असुरकुमार देवों की भांति) नागकुमार से लेकर यावत् स्तनितकुमार-पर्यन्त के भी वैक्रिय शरीरों का संस्थान समझ लेना चाहिए। [3] एवं वाणमंतराण वि / गवरं ओहिया वाणमंतरा पुच्छिज्जति / [1526-3] इसी प्रकार वानव्यन्तर देवों के वैक्रिय शरीर का संस्थान भी असुरकुमारादि को भांति भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा से क्रमशः समचतुरस्र तथा नाना संस्थान वाला कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहाँ प्रश्न (इनके भेद-प्रभेदों के विषय में न होकर) औधिक(सम्मुच्च) वानव्यन्तरदेवों (के वैक्रियशरीर के संस्थान के सम्बन्ध में होना चाहिए। [4] एवं जोइसियाण वि ओहियाणं / [1526-4] इसी प्रकार (वानव्यन्तरों की तरह) प्रौधिक (समुच्चय) ज्योतिष्क देवों के वैक्रियशरोर (भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय) के संस्थान के सम्बन्ध में समझना चाहिए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org