________________ 442] [प्रज्ञापनासूत्र बारह प्रकार के हैं / उनके भी (पर्याप्तक और अपर्याप्तक, यों) दो-दो भेद होते हैं। उन सभी के वैक्रिय शरीर होता है / ) कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के होते हैं-- वेयकवासी और अनुत्तरौ पातिक / वेयक देव नौ प्रकार के होते हैं, और अनुत्तरौपपातिक पांच प्रकार के / इन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक के अभिलाप से दो-दो भेद (कहने चाहिए)। इन सबके वैक्रिय शरीर होता है / ) विवेचन-वैक्रियशरीर के भेद-प्रभेद-प्रस्तुत सात सूत्रों (1514 से 1520 तक) में वैक्रिय शरीर के विधिद्वार के सन्दर्भ में उसके एकेन्द्रियगत और पंचेन्द्रियगत सभी भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। फलितार्थ-वक्रियशरीर के सभी भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा का फलितार्थ यह है कि एकेन्द्रियों में केवल पर्याप्तक बादर वायुकायिक जीवों के वैक्रियशरीर होता है। पंचेन्द्रियों में पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में-संख्यातवर्षायुष्क गर्भजपर्याप्तकों के वैक्रिय शरीर होता है; जबकि मनुष्यों में-पंचेन्द्रिय गर्भज कर्मभूमिक संख्यातवर्षायुष्क, पर्याप्तक मनुष्यों के वैक्रिय शरीर होता है / देवों में सभी प्रकार के पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों भवन पतियों, वानव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के वैक्रिय शरीर होता है। नारकों में-सातों ही नरकपृथ्वियों के पर्याप्तक-अपर्याप्तक सभी नारकों के वैक्रिय शरीर होता है।' निष्कर्ष यह है, वायुकायिकों में, पर्याप्तक-अपर्याप्तक-सूक्ष्म और अपर्याप्तक बादर वायुकायिकों में वैक्रियलब्धि नहीं होती। पंचेन्द्रियों में जलचर, स्थलचर चतुष्पद, उर:परिसर्प, भजपरिसर्प और खेचर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों को, तथा मनुष्यों में गर्भज, पर्याप्तक, संख्येयवर्षायुष्क मनुष्यों को छोड़कर शेष मनुष्यों में वैक्रियलब्धि सम्भव नहीं है / वाणमंतराणं अविहाणं-वानव्यन्तर देव 8 प्रकार के हैं-(१) यक्ष, (2) राक्षस, (3) किन्नर, (4) किम्पुरुष, (5) भूत, (6) पिशाच, (7) गन्धर्व और (8) महोरग / जोइसियाणं पंचविहाणं-ज्योतिष्क देव 5 प्रकार के हैं-(१) चन्द्र, (2) सूर्य, (3) ग्रह, (4) नक्षत्र और (5) तारा / गेवेज्जगा गवविहा-वेयक देव नौ प्रकार के हैं। यथा--(उपरितनत्रिक के, (4) मध्यमत्रिक के और (3) अधस्तनत्रिक के / अणुत्तरोववाइया पंचविहा-अनुत्तरौपपातिक देव 5 प्रकार के हैं-(१) विजय, (2) वैजयन्त, (3) जयन्त, (4) अपराजित और (5) सर्वार्थ सिद्ध विमानवासी। कप्पोवगा बारसविहा-कल्पोपपन्न वैमानिक देव बारह प्रकार के हैं। यथा ---सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, प्रानत, प्राणत, पारण और अच्युत देवलोकों के / 1. पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 118 2. प्रज्ञापना. मलयवृत्ति, पत्र 416 3. (क) प्रज्ञापना-प्रमेयबोधिनीटीका, भा. 4, पृ. 389-390 (ख) तत्त्वार्थसूत्र अ. 4, सू. 11, 12, 13, 20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org