________________ 446] [प्रज्ञापनामूत्र कारण इनका उत्तरवैक्रियशरीर नाना संस्थान वाला होता है। उसका कोई एक नियत प्राकार नहीं होता। नौ प्रैवेयक के देवों तथा पांच अनुत्तर विमानवासी देवों को उत्तरवैक्रियशरीर का कोई प्रयोजन न होने से वे उत्तरवैक्रियशरीर का निर्माण ही नहीं करते, क्योंकि उनमें परिचारणा या गमनागमन आदि नहीं होते। अत: उन कल्पातीत वैमानिक देवों में केवल भवधारणीय शरीर ही पाया जाता है और उसका संस्थान समचतुरस्र ही होता है / ' वैक्रियशरीर में प्रमाणद्वार 1527. वेउब्धियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसतसहस्सं / [1527 प्र.] भगवन् ! वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्टत: कुछ अधिक (सातिरेक) एक लाख योजन की कही गई है / 1528. वाउक्काइयएगिदियवेउब्वियसरीरस्सणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहण्णण अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / [1528 प्र.] भगवन् ! वायुकायिक-एकेन्द्रियों के वैक्रियशरीर को अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की (कही गई है।) 1529. [1] जेरइयपंचेंदियवेउब्वियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / ! तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य / तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहणणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं पंचधणुसयाई। तत्थ णं जा सा उत्तरवेउब्विया सा जहण्णणं अंगुलस्स संखेज्जइभाग, उक्कोसेणं धणुसहस्सं / [1526-1 प्र.] भगवन् ! नै रयिक-पंचेन्द्रियों के वैक्रियशरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (वह) दो प्रकार की कही गई है। यथा--भवधारणीया और उत्तरवैक्रिय। अवगाहना / उनमें से जो उनकी भवधारणीया अवगाहना है, वह जघन्यतः अंगुल के असंख्यात भाग की है, और उत्कृष्टत: पाँच-सौ धनुष की है। (तथा) उत्तरवैक्रिया अवगाहना जघन्यत: अंगुल के संख्यातवें भाग की और उत्कृष्टतः एक हजार धनुष की है। [2] रयणप्पभापुढविणेरइयाणं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेग्विया य / 1. (क) प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 416-417 (ख) प्रज्ञापना, प्रमेयवोधिनीटीका भा. 4, पृ. 697, 703 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org