________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान-पद] [421 1486. [1] खयरा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-सम्मुच्छिमा य गम्भवक्कंतिया य। 11886-1] खेचर तिर्यञ्चयोनिक-पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर भी दो प्रकार का कहा गया है / यथा-सम्मूच्छिम और गर्भज / [2] सम्मुच्छिमा दुविहा पण्णत्ता / तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य / 1886-2] सम्मूच्छिम ( खेचर ति० पं० प्रोदारिक शरोर) दो प्रकार का कहा गया है / यथा ---पर्याप्तक का और अपर्याप्तक का / [3] गम्भवक्कंतिया वि पज्जता य अपज्जत्ता य / [1486-3] गर्भज (-खेचर तिर्यञ्च योनिक-पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर) भी पर्याप्त और अपर्याप्त (के भेद मे दो प्रकार का कहा गया है)। 1487. [1] मणूसपंचेंदियआरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सम्मुच्छिममणूसपंचेंदियओरालियसरोरे य गम्भवक्कंतियमणूसपंर्चेदियोरालियसरीरे य / (1487-1 प्र.! भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.) गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार सम्मूच्छिम मनुष्यपंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर और गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय-औदारिक शरीर : [2] गम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियोरालियसरीरे गं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा! दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-पज्जत्तगगम्भवतियमणूसपंचेंदियओरालियसरीरे य अपज्जत्तगगम्भवक्कंतियमणूसपंचेंदियोरालियसरीरे य / / 1487-2 प्र.] भगवन् ! गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है: 3.] गौतम ! (वह) दो प्रकार का कहा गया है। यथा-पर्याप्तक गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रियऔदारिक शरीर और अपर्याप्तक गर्भज मनुष्य-पंचेन्द्रिय प्रौदारिक शरीर।। विवेचन - औदारिक शरीर के भेद-प्रभेद-प्रस्तुत 12 सूत्रों (1476 से 1487 तक) में विधिद्वार के सन्दर्भ में प्रोदारिक शरीर के भेद-प्रभेदों का निरूपण किया गया है। औदारिक शरीरधारी जीव-नारकों ओर देवों को छोड़ कर एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तिर्यचों और मनुष्यों के जितने भी जीव हैं और उन जीवों के जितने भो भेद-प्रभेद हैं, उतनी ही औदारिक शरीर के भेद-प्रभेदों की संख्या है।' ओदारिक शरीर के भेदों की गणना-पांच प्रकार के एकेन्द्रियों के प्रौदारिक शरीरों के प्रत्येक के सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चार-चार भेद होने से कुल 20 भेद हुए / तीन विकलेन्द्रियों 1. पागवण्णामुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 117 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org