________________ 428] [प्रज्ञापनासून हों, वह समचतुरस्रसंस्थान है, (2) न्यग्रोध-परिमण्डल-न्यग्रोध का अर्थ है-वट या बड़। जैसे वटवृक्ष का ऊपरी भाग विस्तीर्ण या पूर्णप्रमाणोपेत होता है और नीचे का भाग होन या संक्षिप्त होता है, वैसे ही जिस शरीर के नाभि के ऊपर का भाग पूर्ण प्रमाणोपेत हो, किन्तु नीचे का भाग (निचले अवयव) हीन या संक्षिप्त हों, वह न्यग्रोधपरिमण्डलसंस्थान है। (3) सादिसंस्थान-सादि शब्द में जो 'पादि' शब्द है, वह नाभि के नीचे के भाग का वाचक है / नाभि के अधस्तन भागरूप प्रादि सहित, जो संस्थान हो, वह 'सादि' कहलाता है। आशय यह है कि जो संस्थान नाभि के नीचे प्रमाणोपेत हो, किन्तु जिसमें नाभि के ऊपरी भाग होन हों, वह सादिसंस्थान है। कई प्राचार्य इसे साचीसंस्थान कहते हैं। साची कहते हैं----शाल्मली (सेमर) वृक्ष को। शाल्मली वृक्ष का स्कन्ध (नोचे का भाग) अतिपुष्ट होता है, किन्तु ऊपर का भाग तदनुरूप विशाल या पृष्ट नहीं होता, उसी तरह जिस शरीर का अधोभाग परिपुष्ट व परिपूर्ण हो, और ऊपर का भाग हीन हो, वह साचीसंस्थान है। (4) कुब्जक संस्थान--जिस शरीर के सिर, गर्दन हाथ पैर आदि अवयव आकार में प्रमाणोपेत हों, किन्तु वक्षस्थल, उदर आदि टेढ़मेढ़े-बेडौल या कुबड़े हों, वह कुब्जकसंस्थान है / (5) वामनसंस्थामजिस शरीर के छाती पेट आदि अवयव प्रमाणोपेत हों, किन्तु हाथ-पैर प्रादि अवयव होन हों, जो शरीर बौना हो, वह वामनसंस्थान है। (6) हुण्डकसंस्थान--जिस शरीर के सभी अंगोपांग वेडौल हों, प्रमाण और लक्षण से हीन हों, वह हुण्डकसंस्थान कहलाता है।' __औधिक तिर्यचयोनिकों के नौ आलापक—ये नौ पालापक इस प्रकार हैं--समुच्चय पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों का एक, इनके पर्याप्तकों का एक और अपर्याप्तकों का एक, यों तीन आलापक ; सम्मूच्छिमपंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक का एक, इनके पर्याप्तक-अपर्याप्तकों के दो, यो कुल तीन आलापक, तथा गर्भजपंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक का एक, उनके पर्याप्तक अपर्याप्तक का एक-एक, यों कुल तीन आलापक / ये सब मिलाकर 9 पालापक हुए। स्थलचर-पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के औदारिकशरीर सम्बन्धी नौ सूत्र-समुच्चय स्थलचरों का, उनके पर्याप्तों का. अपर्याप्तों का: सम्मच्छिम स्थलचरों का, उनके पर्याप्तों का, अपर्याप्तों का; तथा गर्भज स्थलचरों का, उनके पर्याप्तकों का, एवं अपर्याप्तकों का एक-एक सूत्र होने से कुल नौ सूत्र होने हैं। औदारिक शरीर में प्रमाणद्वार 1502. ओरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णता? गोयमा ! जहणेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं / [1502 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? [उ.] गौतम ! (प्रौदारिक शरीरावगाहना) जघन्यतः अंगुल के असंख्यातवें भाग की (और) उत्कृष्टत: कुछ अधिक हजार योजन की है। 1. प्रज्ञापना, मलयवृत्ति, पत्र 812 / 5. (क) वही, मलयवृत्ति, पत्र 412, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनीटीका भा. 4, पृ. 632 3. (क) वही, मलयवृत्ति पत्र 412, (ख) प्रज्ञापना प्रमेयबोधिनीटीका भा. 4, पृ. 633 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org