________________ 430] [प्रज्ञापनासून [2] अपज्जत्तगाणं जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / [1506-2 (वनस्पतिकायिक) अपर्याप्तकों (के औदारिक शरीर) की जघन्य और उत्कृष्ट (अवगाहना) भी अंगुल के असंख्यातवें भाग की है / [3] पज्जत्तगाणं जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं / [1506-3] (वनस्पतिकायिक) पर्याप्तकों (के औदारिक शरीर) की (अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को (और) उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है। [4] बादराणं जहष्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभाग, उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं / पज्जताण वि एवं चेव / अपज्जत्ताणं जहण्णेण वि उक्कोसेण वि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं / [1506-4] बादर (वनस्पतिकायिकों के औदारिक शरीर) को (अवगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की (और) उत्कृष्ट कुछ अधिक हजार योजन की है / (इनके) पर्याप्तकों की (औदारिक शरीरावगाहना) भी इसी प्रकार से समझनी चाहिए / ) (इनके) अपर्याप्तकों की (यौदारिक शरीरावगाहना) जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से) अंगूल के असंख्यातवें भाग की (समझनी चाहिए / ) [5] सुहमाणं पज्जत्तापज्जत्ताण य तिण्ह वि जहण्णेण वि उक्कोसेण बि अंगुलस्स असंखेज्जइभागं। 1506-5] (वनस्पतिकायिकों के) सूक्ष्म, पर्याप्तक और अपर्याप्तक, इन तीनों की (औदारिक शरीरावगाहना)जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों रूप से) अंगुल के असंख्यातवें भाग की है / 1507. [1] बेइंदियोरालियसरीरस्स णं भंते ! केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं बारस जोयणाई / [1507-1] भगवन् ! श्रीन्द्रियों के औदारिक शरीर की अवगाहना कितनी कही गई है ? (उ. गौतम ! (इनकी शरीरावगाहना) जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग की और उत्कृष्ट बारह योजन की है। [2] एवं सब्वत्थ वि अपज्जत्तयाणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं जहण्णण वि उक्कोसेण वि / {1507-2] इसी प्रकार सर्वत्र (द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों में) अपर्याप्त जीवों की औदारिक शरीरावगाहना भी जघन्य और उत्कृष्ट (दोनों प्रकार से) अंगुल के असंख्यातवें भाग की कहनी चाहिए। [3]. पज्जत्तयाणं जहेव ओरालियस्स ओहियस्स (सु. 1507-1) / | 1507-3) पर्याप्त द्वीन्द्रियों के प्रोदारिक शरीर की अवगाहना भी उसी प्रकार है, जिस प्रकार [1507-1 सू. में] (द्वीन्द्रियों के) औधिक (औदारिकशरीर) की (कही है / ) अर्थात् जघन्य अंगुल के असंख्यातवे भाग की और उत्कृष्ट बारह योजन की होती है।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org