________________ 266 ] [प्रज्ञापनासून कतिपय पंचेन्द्रियतिर्यंचों में, मनुष्यों में और लान्तक आदि कल्पों के देवों में ही पाई जाती है / उनकी अपेक्षा संख्यातगुणे अधिक पद्मलेश्या वाले जीव कहे हैं, क्योंकि वह पंचेन्द्रियतिर्यंचों में, मनुष्यों में तथा सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक नामक कल्पों में पाई जाती है / उनसे संख्यातगुणे अधिक तेजोलेश्या वाले जीव इसलिए कहे गए हैं कि तेजोलेश्या बादर पृथ्वीकायिकों, बादर अप्कायिकों, प्रत्येक वनस्पतिकायिकों में तथा संख्यातगणे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में. मनष्यों में, भवनपति, वाणव्यन्तर ज्योतिष्क, सौधर्म और ईशान देवों में पाई जाती है। तेजोलेश्यी जीवों की अपेक्षा अलेश्य जीव अनन्तगुणे अधिक इसलिए कहे गए हैं, क्योंकि सिद्ध जीव अनन्त हैं और वे अलेश्य हैं। अलेश्यों की अपेक्षा कापोतलेश्या वाले वनस्पतिकायिक जीव अनन्तगुणित होने से कापोतलेश्या वाले जीव अलेश्यों से अनन्तगुणे अधिक हैं। क्लिष्ट और क्लिष्ट तर अध्यवसाय वाले जीव अपेक्षाकृत अधिक होते हैं, इस कारण कापोतलेश्या वालों की अपेक्षा नीललेश्या वाले और नीललेश्या वालों की अपेक्षा कृष्णलेश्या वाले जीव विशेषाधिक होते हैं। विविधलेश्याविशिष्ट चौवीसदण्डकवर्ती जीवों का अल्पबहत्व 1171. एतेसि णं भंते ! रइयाणं कण्हलेस्साणं नीललेस्साणं काउलेहसाण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवा रइया कण्हलेसा, णोललेस्सा असंखेज्जगुणा, काउलेस्सा असंखेज्जगुणा / [1171 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या वाले नारकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? / [1171 उ. गौतम ! सबसे थोड़े कृष्णलेश्या वाले नारक हैं, उनसे असंख्यातगुणे नीललेश्या वाले हैं और उनसे भी असंख्यातगुणे कापोतलेश्या वाले हैं। 1172. एतेसि णं भंते ! तिरिक्खजोणियाणं कण्हलेस्साणं जाव सुक्कलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? गोयमा ! सम्वत्थोषा तिरिक्खजोणिया सुक्कलेसा, एवं जहा प्रोहिया (सु. 1170) णवरं अलेस्सवज्जा / [1172 प्र.) भगवन् ! इन कृष्णलेश्या से ले कर यावत् शुक्ललेश्या याले तियंचयोनिकों में से कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? [1172 उ.] गौतम ! सबसे कम तिर्यञ्च शुक्ललेश्या वाले हैं इत्यादि जैसे पहले सूत्र 1170 में प्रोधिक (समुच्चय) का प्रतिपादन किया गया है, उसी प्रकार यहाँ भी समझ लेना चाहिए। विशेषता यह है कि तिर्यञ्चों में अलेश्य नहीं कहना चाहिए, (क्योंकि उनमें अलेश्य होना सम्भव नहीं है)। 1173. एतेसि गं भंते ! एगिदियाणं करहलेस्साणं जाव तेउलेस्साण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4? 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वृत्ति, पत्रांक 345 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org