________________ 416] [प्रज्ञापनासूत्र (5) कार्मणशरीर-जो शरीर कर्मज (कर्म से उत्पन्न) हो, अथवा जो कर्म का विकार हो. वह कार्मणशरीर है। आशय यह है, कि कर्म परमाणु ही आत्मप्रदेशों के साथ दूध-पानी की भांति एकमेक हो कर परस्पर मिलकर शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं, तब वे कार्मण (कर्मज) शरीर कहलाते हैं / कहा भी है-कार्मणशरीर कर्मों का विकार (कार्य) है, वह अष्टविध विचित्र कर्मों से निष्पन्न होता है। इस शरीर को समस्त शरीरों का कारण समझना चाहिए / अतः यौदारिक ग्रादि समस्त शरीरों का बीजरूप (कारणरूप) कार्मणशरीर ही है। जब तक भवप्रपञ्च रूपी अंकुर के बीजभूत कार्मणशरीर का उच्छेद नहीं हो जाता, तब तक शेष शरीरों का प्रादुर्भाव रुक नहीं सकता / यह कर्मज शरीर ही जीव को (मरने के बाद) दूसरी गति में संक्रमण कराने में कारण है / तैजससहित कर्मणशरीर के युक्त हो कर जीव जब मर कर अन्य गति में जाता है अथवा दूसरी गति से मनुष्य गति में आता है, तब उन पुद्गलों की अतिसक्षमता के कारण जीव चर्मचक्षुओं से नहीं दिखाई देता / अन्यतीथिकों ने भी कहा है-"यह भवदेह बीच में (जन्म और मर में) भी रहता है, किन्तु अतिसूक्ष्म होने के कारण शरीर से निकलता अथवा प्रवेश करता हुआ दिखाई नहीं देता।" तैजस और कार्मणशरीर के बदले अन्य धर्मों में मूक्ष्म और कारण शरीर माना गया है।' औदारिक शरीर में विधिद्वार 1476. पोरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णतें / तं जहा---एगिदियओरालियसरीरे जाव पंचेंदियनोरालियसरीरे / [1476 प्र.] भगवन् ! औदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! वह पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार- एकेन्द्रिय-ग्रौदारिक . शरीर यावत् पचेन्द्रिय-औदारिक शरीर / 1477. एगिदियओरालियसरीरे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते / तं जहा-पुढविक्काइयगिदियओरालियसरीरे जाव वणप्फइकाइयएगिदियओरालियसरीरे। [1477 प्र.] भगवन् ! एकेन्द्रिय-प्रौदारिक शरीर कितने प्रकार का कहा गया है ? [उ.] गौतम ! वह (एकेन्द्रिय-औदारिक शरीर) पांच प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार—पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय-प्रौदारि कशरीर यावत् वनस्पति कायिकएकेन्द्रिय-ग्रौदारिक गरीर / 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 410 (ख) “कम्मविगारो कम्मणमट्ठविह विचित्तकम्मनिष्पन्न / मगि मरीगणं कारणभूतं मुणयब / (ग) “अन्तग भवदेहोऽपि. सुक्ष्मत्वान्नोपलभ्यते / / निकामन प्रविशन वापि, नाभावोऽनीक्षणादपि / / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org