Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ इक्कीसवां अवगाहना-संस्थान-पद] [415 पांचों शरीरों के लक्षण -(1) औदारिकशरीर-जो उदार अर्थात् प्रधान हो, उसे औदारिक गरीर कहते हैं। प्रीदारिक शरीर की प्रधानता तीर्थकर, गणधर आदि के औदारिक शरीर होने की अपेक्षा में है / अथवा उदार का अर्थ विशाल यानी बृहत्परिमाण वाला है। क्योंकि प्रौदारिक शरीर एक हजार योजन से भी अधिक लम्बा हो सकता है, इसलिए अन्य शरीरों की अपेक्षा यह विशाल परिमाण वाला है / औदारिक शरीर की यह विशालता भवधारणीय शरीर की अपेक्षा से समझनी चाहिए, अन्यथा उत्तर वैक्रिय शरीर तो एक लाख योजन का भी हो सकता है।' (2) वैक्रियशरीर--जिस शरीर के द्वारा विविध, विशिष्ट या विलक्षण क्रियाएँ हो, वह वक्रिय शरीर कहलाता है / जो शरीर एक होता हया, अनेक बन जाता है, अनेक होता हश्रा, एक हो जाता है, छोटे से बड़ा और बड़े से छोटा, खेचर से भूचर और भूचर से खेचर हो जाता है तथा दृश्य होता हुमा अदृश्य और अदृश्य होता हुअा दृश्य बन जाता है, इत्यादि विलक्षण लक्षण वाला शरीर वैक्रिय हैं। वह दो प्रकार का होता है-औपपातिक (जन्मजात) और लोब्ध-प्रत्यय / प्रोपपातिक क्रिय शरीर उपपात-जन्म वाले देवों और नारकों का होता है और लब्धि-प्रत्यय वैक्रिय शरीर लब्धिनिमित्तक होता है, जो तिर्यञ्चों और मनुष्यों में से किसी-किसी में पाया जाता है / (3) आहारकशरीर-चतुर्दशपूर्वधारी मुनि तीर्थकरों का अतिशय देखने आदि के प्रयोजनवश विशिष्ट प्राहारकलब्धि से जिस शरीर का निर्माण करते हैं, वह आहारक शरीर कहलाता है। "श्रुतकेवलो द्वारा प्राणिदया, तीर्थंकरादि की ऋद्धि के दर्शन, सूक्ष्मपदार्थावगाहन के हेतु से तथा किसी संशय के निवारणार्थ जिनेन्द्र भगवान् के चरणों में जाने का कार्य होने पर अपनी विशिष्ट लब्धि से शरीर निर्मित किये जाने के कारण इसको आहारक शरीर कहा गया है।" यह शरीर वैक्रिय शरीर की अपेक्षा अत्यन्त शुभ और स्वच्छ स्फटिक शिला के सदृश शुभ पुद्गलसमूह से रचित होता है / (4) तेजसशरीर तैजसपुद्गलों से जो शरीर बनता है, वह तैजस शरीर कहलाता है / यह शरीर उष्मारूप और भुक्त आहार के परिणमन (पाचन) का कारण होता है। तेजस शरीर के निमित्त से ही विशिष्ट तपोजनित लब्धि वाले पुरुष के शरीर से तेजोलेश्या का निर्गम होता है। यह तैजस शरीर सभी संसारी जीवों को होता है, शरीर की उष्मा (उष्णता) से इसकी प्रतीति होतो है, जो आहार को पचा कर उसे रसादिरूप में परिणत करता है, अथवा तेजोलन्धि के निमित्त से होता है / इसी कारण इसे तैजस शरीर समझना चाहिए / - 1. प्रजापना, मलय. वृत्ति, पत्र 401 2. नही. पत्र 801 3. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 409 (ख) कज्जमि ममुपपणे सुयके वलिणा विसिट्ठल द्धीए / ज पन्थ आहरिज्जइ, भणितं पाहारगं तं तु॥१॥ पाणिदयरिद्धि-दसणमूहमपयत्थावगहणहेउ बा / संमयवोच्छेयत्थं गमणं जिणपाय मूलमि / / 2 / / 8. (क) प्रज्ञापनः . मलय. वत्ति, पत्र४०९ (ख) "मबस्स उम्हसिद्ध रमाइ आहारपाकजणगं च / नयगलद्धिनिमित्तं च तेयग होइ नायव्यं / / " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org