________________ इक्कीसवाँ : अवगाहना-संस्थान-पद] [413 शरीर की तुलना हो सकती है। सांख्य प्रादि दर्शनों में अव्यक्त, सूक्ष्म या लिंग शरीर बताया गया है, जिसकी तुलना जैनसम्मत कार्मणशरीर से हो सकती है।' सर्वप्रथम औदारिक शरीर के भेद, संस्थान और प्रमाण, इन तीन द्वारों को क्रमशः एक साथ लिया गया है / औदारिक शरीर के भेदों की गणना में एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय-मनुष्य नक के जितने जीव-भेद-प्रभेद हैं, उतने ही भेद औदारिक शरीर के गिनाए हैं। औदारिक गरीर का संस्थान–ग्राकृति का भी इतने ही जीवभेदों के क्रम से विचार किया गया है। पृथ्वीकाय का मसूर की दाल जैसा, अपकाय का स्थिर जलबिन्दु जैसा, तेजस्काय का सुइयों के ढेर-सा, वायुकाय का पताका जैसा और वनस्पतिकाय का नाना प्रकार का प्राकार है। द्वीन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय एवं सम्मूच्छिमपंचेन्द्रिय का हुंडकसंस्थान है। सम्मूच्छिम के सिवाय के बाकी के औदारिक शरीरी जीवों के छहों प्रकार के संस्थान होते हैं। औदारिकादि शरीर के प्रमाणों अर्थात्-ऊँचाई का विचार भी एकेन्द्रियादि जीवों की अपेक्षा से किया गया है। वैक्रिय शरीर का भी जीवों के भेदों के अनुसार विचार किया गया है। उनमें बादर-पर्याप्त वायू और पंचेन्द्रियतिर्यचों में संख्यात वर्षायूष्क पर्याप्त गर्भजों को उक्त शरीर होता है और पर्याप्त मनुष्यों में से कर्मभूमि के भनुष्य के ही होता है। सभी देवों एवं नारकों के वैक्रिय शरीर होता है, यह बता कर उसकी प्राकृति का वर्णन किया है। भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय, इन दोनों को लक्ष्य में रखा गया है। * आहारक शरीर एक ही प्रकार है। वह कर्मभूमि के ऋद्धिसम्पन्न प्रमत्तसंयत मनुष्य को ही होता है / उसका संस्थान समचतुरस्र होता है। उत्कृष्ट ऊँचाई पूर्ण हाथ जितनी होती है / * तेजस और कार्मण शरीर एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीवों के होता है / इसलिए जीव के भेदों जितने ही उसके भेद होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर की अवगाहना का विचार मारणान्तिक-समुदघात को लक्ष्य में रख कर किया गया है। मृत्यु के समय जीव को मर कर जहाँ जाना होता है, वहाँ तक की अवगाहना यहाँ कही गई है। * शरीर के निर्माण के लिए पुद्गलों का चय-उपचय एवं अपचय कितनी दिशाओं से होता है इसका उल्लेख भी चौथे द्वार में किया गया है। * पाँचवे द्वार में -एक जीव में एक साथ कितने शरीर रह सकते हैं ? उसका उल्लेख है / * छठे द्वार में शरीरगत द्रव्यों और प्रदेशों के अल्प-बहुत्व की चर्चा की गई है। * मातवें द्वार में अवगाहना का अल्पबहुत्व जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट को अपेक्षा से प्रतिपादित है / मूलपाठ में ही उक्त सभी विषय स्पष्ट हैं। 1. (क) 'भगवती 171 मू. 592 (ख) तैत्तिरीयोपनिषद् भृगुवल्ली (वेलवलकर) (ग) मारयकारिका (वेलवलकर और गनहे) 2. पण्णवणासुन भा. 2, पृ. 117 3. बही, भा. 2, पृ. 118 4. वही, भा. 2, पृ. 119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org