________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद [411 लेनी चाहिए। यद्यपि यासंज्ञी-अवस्था में भोगी जाने वाली प्रायु भी असंजी-आयु कहलाती है, किन्तु यहाँ उसको विवेक्षा नहीं है।' चारों प्रकार की असंज्ञी-आयु की स्थिति-(१) जघन्य नरकायु का बन्ध 10 हजार वर्ष का कहा है, वह प्रथम नरक के प्रथम प्रस्तट (पाथडे) की अपेक्षा से समझना चाहि नरकायुबन्ध पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जित करता है, यह कथन रत्नप्रभापृथ्वी के चौथे प्रतर के मध्यम स्थिति वाले नारक की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम प्रस्तट में जघन्य 10 हजार वर्ष की स्थिति है, जबकि उत्कृष्ट स्थिति 60 हजार वर्ष की है। दूसरे प्रस्तट में जघन्य 10 लाख वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति 60 लाख वर्ष की है। इसी के तृतीय प्रस्तट में जघन्य स्थिति 10 लाख वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति एक कोटि पूर्व की है / चतुर्थप्रस्तट में जघन्य एक कोटिपूर्व की है और उत्कृष्ट स्थिति सागरोपम के दशवें भाग की है। अतः यहाँ पल्योपम के असंख्यातवें भाग की स्थिति मध्यम है। तिर्यञ्चयोनिक असंज्ञी-पायु उत्कृष्टतः पल्यापम के असंख्यातवें भाग की कही है, वह युगलिया तिर्यञ्च की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसी प्रकार असंज्ञी-मनुष्यायु भी जो उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग की कही है, वह भी यौगलिक नरों की अपेक्षा से समझना चाहिए। असंजी-आयुष्यों का अल्पबहुत्व-भी इन चारों के ह्रस्व और दीर्घ को अपेक्षा से समझना चाहिए। // प्रज्ञापना भगवती का वीसवाँ अन्तक्रियापद समाप्त / / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 407 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्र 403 3. वही, मलय. वृत्ति, पत्र 407 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org