________________ 410] [प्रज्ञापनासूत्र उ.] गौतम ! असंज्ञि-प्रायुष्य चार प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार--नरयिकअसंज्ञि-पायुष्य (से लेकर) यावत् देव-असंज्ञि-प्रायुप्य (तक)। 1472. असण्णी णं भंते ! जोवे कि रइयाउयं पकरेति जाव देवाउयं पकरेति ? गोयमा ! णेरइयाउयं पकरेति जाव देवाउयं पकरेति, णेरइयाउयं पकरेमाणे जहण्णणं दस वाससहस्साइं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरेति, तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जहण्णेणं अंतोमुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरेति, एवं मणुयाउयं पि, देवाउयं जहा परइयाउयं / [1472 प्र.] भगवन् ! क्या असंज्ञी नैरयिक की आयु का उपार्जन करता है अथवा यावत् देवायु का उपार्जन करता है ? / [उ.] गौतम ! वह नै रयिक-ग्रायु का उपार्जन भी करता है, यावत् देवायु का भी उपार्जन करता है / नारकायु का उपार्जन करता हुआ असंज्ञी जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट पल्योपम संख्यातवें भाग की प्रायु का उपार्जन (बन्ध) कर लेता है। तिर्यञ्चयोनिक-पायूष्य का उपार्जन (बन्ध) करता हुआ वह जघन्य अन्तमुहूर्त का और उत्कृष्टतः पल्योपम के असंख्यातवें भाग का उपार्जन करता है / इसी प्रकार मनुष्यायु एवं देवायु का उपार्जन (बन्ध) भी नारकायु के समान कहना चाहिए। 1473. एयस्स णं भंते ! रइयअसण्णिआउयस्स जाव देवअसण्णिआउयस्स य कतरे कतरेहितो अप्पा वा 4 ? गोयमा ! सम्वत्थोवे देवअसण्णिाउए, मणुयप्रसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, तिरिक्खजोणियअसण्णिआउए असंखेज्जगुणे, नेरइयअसन्निआउए असंखिज्जगुणे / ॥पण्णवणाए भगवतीए वीसइमं अंतकिरियापयं समत्तं // |1473 प्र.] भगवन् ! इस नै रयिक-असंज्ञी-पायु यावत् देव-प्रसज्ञी-पायु में से कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक है? (उ.| हे गौतम ! सबसे अल्प देव-प्रसंज्ञो-पायु है, मनुष्य-असंज्ञी-प्रायु (उससे) असंख्यातगुणी (अधिक) है, (उससे) तिर्यञ्चयोनिक असंज्ञो-आयु असंख्यातगुणो (अधिक) है, (और उससे भी) नैरयिक-प्रसंज्ञी-प्रायु असंख्यातगुणी (अधिक) है। विवेचन—असंज्ञी की आयु : प्रकार, स्थिति और अल्पबहुत्व-प्रस्तुत तीन सूत्रों (1471 से 1473) में असंज्ञी-अवस्था में नरकादि आयु का जो बन्ध होता है, उसकी तथा उसके बांधने वाले के अल्पबहुत्व की चर्चा की गई है। असंज्ञि-पायु का विवक्षित अर्थ असंज्ञी होते हुए जीव परभव के योग्य जिस आयु का बन्ध करता है, वह असंज्ञि-आयु कहलाती है। नैरयिक के योग्य असंज्ञी की आयु नै रयिक-असंज्ञो-पायु कहलाती है / इसी प्रकार तिर्यग्योनिक-असंज्ञी-पायु, मनुष्य-असंज्ञी-प्रायु तथा देवासंज्ञी-पायु भी समझ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org