________________ बीसवाँ : अन्तक्रियापद]] [409 हों, किन्तु सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हों, ऐसे निह्नव / ' इनमें से कोई देव हो तो किस देवलोक तक जाता है ? इसके लिए तालिका देखियेक्रम साधक का प्रकार देवलोक में कहाँ से कहाँ तक जाता है ? 1. असंयत भव्यद्रव्यदेव भवनवासी से नौ नैवेयक देवों तक 2. संयम का अविराधक सौधर्मकल्प से सर्वार्थसिद्धविमान तक 3. संयम का विराधक भवनपति देवों से लेकर सौधर्मकल्प तक 4. संयमासंयम (देशविरति) का अविराधक सौधर्मकल्प से अच्युतकल्प तक 5, संयमासंयम का विराधक भवनवासी से ज्योतिष्क देवों तक 6. अकामनिर्जराशील असंज्ञी भवनवासी से वाणव्यन्तर देवों तक 7. तापस भवनवासी से ज्योतिष्क देवों तक 8. कान्दर्षिक भवनवासी से सौधर्मकल्प तक 6. चरक-परिव्राजक भवनपति देवों से ब्रह्मलोक तक 10. किल्विषिक सौधर्मकल्प से लान्तक तक 11. तैरश्चिक (अथवा देश विरत तिर्यञ्च) भवनवासी से सहस्रारकल्प तक 12. ग्राजीविक या आजीवक भवनवासी से अच्युतकल्प तक 13. प्राभियोगिक भवनवासी से अच्युतकल्प तक 14. स्वलिंगी, किन्तु दर्शनभ्रष्ट (निह्नव) भवनवासी से ग्रे वेयक देव तक' फलितार्थ—इस समग्रचर्चा के आधार में निम्नोक्त मन्तव्य फलित होता है... (1) आन्तरिक योग्यता के विना भी बाह्य पाचरण शुद्ध हो, तो जीव अवेयक देवलोक तक जाता है / (2) इससे अन्ततोगत्वा जै लग धारण करने वाले का भी महत्त्व है, यह नं. 1 और नं. 14 के साधक के लिए दिये गए निर्णय से फलित होता है। (3) आन्तरिक योग्यतापूर्वक संयम का यथार्थ पालन करे तो सर्वोच्च सर्वार्थसिद्ध देवलोक तक में जाता है। असंज्ञि-आयुष्यप्ररूपण 1471. कतिविहे गं भंते ! असण्णिआउए पण्णत्ते ? गोयमा ! चउविहे असण्णिआउए पण्णत्ते / तं जहा—णेरइयअसणिग्राउए जाव देवअसण्णिआउए। [1471 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी का प्रायुष्य कितने प्रकार का कहा गया है ? 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 804 में 406 तक (ख) वृहत्कल्पमाप्य 1298-1301, 1306-1307 तथा 1308 मे 1918 गा. (ग) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 8.1.574 577 तक 3. पण्णवणासुतं (प्रस्तावनादि) भा. 2, पृ. 115-116 3. वहीं, भा. 2, प. 116 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org