________________ वीसवां अन्तक्रियापद] [407 भव्य-द्रव्यदेव-उपपात-प्ररूपणा 1470. अह भंते ! असंजयभवियदव्वदेवाणं अविराहियसंजमाणं विराहियसंजमाणं अविराहियसंजमासंजमाणं विराहियसंजमाजमाण असण्णोणं तावसाणं कंदप्पियाणं चरग-परिव्वायगाणं किबिसियाणं तिरिच्छियाणं आजीवियाणं आभिप्रोगियाणं सलिगोणं दंसणवावण्णगाणं देवलोगेसु उववज्जमाणाणं कस्स कहि उववाओ पण्णत्तो? गोयमा ! अस्संजयभवियदव्वदेवाणं जहण्णणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिमगेवेज्जगेसु, अविराहियसंजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं सवदसिद्ध, विराहियसंजमाणं जहण्णणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे, अविराहियसंजमासंजमाणं जहणणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे, विराहियसंजमासंजमाणं जहण्णणं भवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसिएसु, असण्णोणं जहणणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरेसु, तावसाणं जहण्णेणं भवणवासोसु उक्कोसेणं जोइसिएसु, कंदप्पियाणं जहाणेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे, चरग-परिवायगाणं जहणणं भवणवासीसु उक्कोसेणं बंभलोए कप्पे, किब्बिसियाणं जहण्णणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं लंतए कप्पे, तेरिच्छियाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सहस्सारे कप्पे, प्राजीवियाणं जहण्णेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे, एवं आभिओगाण वि, सलिगोणं दंसणवावण्णगाणं जहणणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिमगेवेज्जएसु। 1470 प्र.] भगवन् ! असंयत भव्य-द्रव्यदेव (अर्थात्-जो असंयमी आगे जा कर देव होने वाले हैं) जिन्होंने संयम की विराधना नहीं की है, जिन्होंने संयम की विराधना की है, जिन्होंने संयमा-संयम की विधिना नहीं की है, (तथा) जिन्होंने संयमासंयम की विराधना की है, जो असंज्ञी हैं, तापस हैं, कान्दपिक हैं, चरक-परिव्राजक हैं, किल्विषिक हैं, तिर्यञ्च गाय आदि पाल कर पाजीविका करने वाले हैं अथवा आजीविकमतानयायी हैं. जो पाभियोगिक (विद्या. मंत्र. तंत्र आदि अभियोग करते) हैं, जो स्वलिंगी (समान वेष वाले) साधु हैं तथा जो सम्यग्दर्शन का वमन करने वाले (सम्यग्दर्शनव्या पन्न) हैं, ये जो देवलोकों में उत्पन्न हों तो (इनमें से) किसका कहाँ उपपात कहा गया है। [उ.| असंयत भव्य-द्रव्यदेवों का उपपाद जघन्य भवनवासी देवों में और उत्कृष्ट उपरिम ग्रेवेयक देवों में हो सकता है। जिन्होंने संयम की विराधना नहीं की है, उनका उपपाद जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध में हो सकता है। जिन्होंने संयम को विरा उपपात जघन्य भवनपतियों में, और उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में होता है। जिन्होंने संयमासंयम की विराधना नहीं की है, उनका उपपात जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में होता है। जिन्होंने संयमासंयम की विराधना की है, उनका उपपाद जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में होता है / असंज्ञो साधकों का उपपात जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट वाणव्यन्तरदेवों में होता है। तापसों का उपपाद जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट ज्योतिष्कदेवों में, कान्दर्पिकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में, उत्कृष्ट सौधर्मकल्प में, चरक-परिव्राजकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में और उत्कृष्ट ब्रह्मलोककल्प में तथा किल्बिषिकों का उपपात जघन्य सौधर्मकल्प में और उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org