________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद] [405 निष्कर्ष-चक्रवर्तीपद के योग्य जीव प्रथम नरक के नारक और चारों प्रकार के देवों में से अनन्तर मनुष्यभव में जन्म लेने वाले हैं / शेष जीव (द्वितीय से सप्तम नरक तक तथा तिर्यञ्चों एवं मनुष्यों में से उत्पन्न होने वाले) नहीं। तीर्थक रत्व-प्राप्ति की योग्यता के विषय में जो कारण प्रस्तुत किये गए थे, वे ही कारण चक्रवतित्वप्राप्ति की योग्यता के हैं।' सप्तम : बलदेवत्वद्वार 1464. एवं बलदेवत्तं पि / णवरं सक्करप्पभापुढविणेरइए वि लभेज्जा / दारं 7 // {1464| इसी प्रकार बलदेवत्व के विषय में भी समझ लेना चाहिए। विशेष यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक भी बलदेवत्व प्राप्त कर सकता है / -सप्तम द्वार / / 7 / / विवेचन बलदेवत्व-प्राप्ति की विचारणा-चक्रवतिपद-प्राप्ति के समान बलदेवपद-प्राप्ति का कथन समझना चाहिए। अर्थात् रत्नप्रभा पृथ्वी के नारक तथा चारों प्रकार के देव अपने-अपने भवों से उद्वर्त्तन करके सीधे कोई (अमुक योग्यता से सम्पन्न) बलदेवपद प्राप्त कर सकते हैं, कोई (अमुक योग्यता से रहित) नहीं। किन्तु यहाँ विशेषता यह है कि शर्कराप्रभापृथ्वी का नारक भी अनन्तर उद्वर्तन करके बलदेवपद प्राप्त कर सकता है / अष्टम : वासुदेवत्वद्वार 1465. एवं वासुदेवत्तं दोहितो पुढवोहितो वेमाणिहितो य अगुत्तरोववातियवज्जेहितो, सेसेसु णो इण? सम8 / दारं 8 // 1465] इस प्रकार दो पृथ्वियों (रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा पृथ्वी) से. तथा अनुत्तरौपपातिक देवों को छोड़ कर शेष वैमानिकों से वासुदेवत्व प्राप्त हो सकता है, शेष जीवों में यह अर्थ समर्थ नहीं, अर्थात् ऐसी योग्यता नहीं होती। -अष्टम द्वार / / 8 / / विवेचन-वासुदेवपदप्राप्ति की विचारणा–प्रस्तुत द्वार में वासुदेवत्वप्राप्ति के सम्बन्ध में विचारणा की गई है। वासुदेवपद केवल रत्नप्रभा एवं शर्कराप्रभा पृथ्वी के नारकों से तथा पांच अनुत्तरविमान के देवों को छोड़ कर शेष वैमानिक देवों से अनन्तर उद्वर्तन करके मनुष्य भव में उत्पन्न होने वाले जीवों को प्राप्त हो सकता है, शेष भवों से आए हुए जीव वासुदेव नहीं हो सकते / नवम : माण्डलिकत्वद्वार 1466. मंडलियत्तं अहेसत्तमातेउ-वाउबज्जेहितो। दारं 9 // |1466] माण्डलिकपद, अधःसप्तमपृथ्वी के नारकों तथा तेजस्कायिक, वायुकायिक भवों को छोड़ कर (शेष सभी भवों से अनन्तर उद्वर्तन करके मनुष्यभव में आए हुए जीव प्राप्त कर सकते हैं।) -नवम द्वार / 1. (क) प्रज्ञापना. मलय. वत्ति, पत्र 403 (ख) पण्णवणासुत्तं (प्रस्तावनादि) भा. 2. पृ. 115 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, पृ. 567-568 3. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भा. 4, पृ. 568 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org