________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद] [403 वही नारक तीर्थकरपद प्राप्त करता है। जिसने पूर्वकाल में तीर्थंकर नामकर्म का बंध ही नहीं किया, अथवा बंध करने पर भी जिसके उसका उदय नहीं हुग्रा, वह तीर्थंकरपद प्राप्त नहीं करता।' अन्तिम चार नरकश्वियों के नारकों को उपलब्धि-पंक, धूम, तमः और तमस्तमः पृथ्वी के नारक अपने-अपने भव से निकल कर तीर्थकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, वे क्रमश: अन्तक्रिया, सर्वविरति, देश विरति चारित्र तथा सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकते हैं। असुरकूमारादि से वनस्पतिकायिक तक—ये जीव अपने-अपने भवों से उदवर्तन करके सीधे तीर्थंकरपद प्राप्त नहीं कर सकते, किन्तु अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकते हैं / वसुदेवचरित में नागकुमारों में से उद्वत्त हो कर सीधे ऐरवत क्षेत्र में इसी अवपिणो काल में चौवीसवें तीर्थकर होने का कथन है / इस विषय में क्या रहस्य है, यह केवली ही जानते है / नीचे इस द्वार की तालिका दी जाती है, जिससे जीव का विकासक्रम जाना जा सके। मनुष्य का अनन्तर पूर्वभव मनुष्यों में सम्भवित उपलब्धि रत्नप्रभा से वालुकाप्रभा तक के नारक तीर्थकरपद पंकप्रभा के नारक मोक्ष धमप्रभा के नारक सर्वविरति तमःप्रभा के नारक देशविरति तमस्तमःप्रभा के नारक सम्यक्त्व समस्त भवनपति देव मोक्ष पृथ्वीकायिक-अप्कायिक जीव मोक्ष तेजस्कायिक जीव (मनुष्यभव नहीं) तिर्यञ्चभव में धर्मश्रवण वनस्पतिकायिक जीव मोक्ष द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीव मनःपर्यायज्ञान पंचेन्द्रियतिर्यञ्च / मोक्ष मनुष्य मोक्ष वाणव्यन्तर देव मोक्ष ज्योतिष्क देव मोक्ष समस्त वैमानिक देव तीर्थकरपद छठा चक्किद्वार 1459. रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! अणंतरं उचट्टित्ता चक्कवट्टित्तं लभेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा / 1. प्रज्ञापनासूत्र, प्रमेयवोधिनी टीका भा. 4, 5. 555 2. प्रज्ञापनासुत्र मलय. वृत्ति, पत्र 403 3. पण्णवणासुतं (प्रस्तावना आदि) भा. 2, पृ. 115 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org