________________ 402] [प्रज्ञापनासूत्र __ 1458. एवं जाव सब्वट्ठसिद्धगदेवे / दारं 5 // {1458] इसी प्रकार (ईशानकल्प के देव से लेकर) यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान के देव तक (सभी वैमानिक देवों तक समझना चाहिए / ) पंचम द्वार / / 5 / / विवेचन-तीर्थकरपद-प्राप्ति की विचारणा---प्रस्तुत पंचम द्वार में नारक प्रादि मर कर अन्तर के विना सीधे मनुष्य में जन्म लेकर तीर्थकरपद प्राप्त कर सकते हैं या नहीं ? इसकी विचारणा की गई है / साथ ही यह भी बताया गया है कि यदि वह जीव तीर्थंकरपद नहीं प्राप्त कर मकता, तो विकासक्रम में क्या प्राप्त कर सकता है ?' सार–इस समस्त पद का निष्कर्ष यह है कि केवल नारकों और वैमानिक देवों में से मर कर सीधा मनुष्य होने वाला जीव ही तीर्थकरपद प्राप्त कर सकता है, अन्य नहीं / 'बद्धाई' आदि पदों के विशेषार्थ--'बद्धाई-सूइयों के ढेर को सूत के धागे से बांधने की तरह अात्मा के साथ (तीर्थकर नाम-गोत्र आदि) कर्मों का साधारण संयोग होना ‘बद्ध' है / 'पुढाई'जैसे उन सुइयों के ढेर को अग्नि से तपा कर एक बार घन से कट दिया जाता है, तब उनमें परस्पर जो सघनता उत्पन्न हो जाती है, उसी प्रकार प्रात्मप्रदेशों और कर्मों में परस्पर सघनता उत्पन्न होना 'स्पृष्ट' होना है / 'निधत्ताई'-उद्वर्तनाकरण और अपवर्तनाकरण के सिवाय शेष करण जिसमें लागत हो सकें, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना 'निधत' कहलाता है। कडाई'अर्थात्-कृत / कृत का अभिप्राय है कर्मों को निकाचित कर लेना, अर्थात्--समस्त करणों के लागू होने के योग्य न हो, इस प्रकार से कर्मों को व्यवस्थापित करना / 'पट्टवियाई'.-..-मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति,त्रस, बादर, पयोप्त, सुभग, प्रादेय एवं यश:कीति नामकर्म के उदय के साथ व्यवस्थापित शोना प्रस्थापित है। 'निविदाई-बद्ध कर्मों का तीन अनभाव-जनक के रूप में स्थित होना निविष्ट का अर्थ है / 'अभिनिविट्ठाई' वही कर्म जब विशिष्ट, विशिष्टतर, विलक्षण अध्यवसायभाव के कारण अति तीव्र अनुभावजनक के रूप में व्यवस्थित होता है, तब अभिनिविष्ट कहलाता है। 'अभिसमन्नागयाइं'–कर्म का उदय के अभिमुख होना 'अभिसमन्वागत' कहलाता है / 'उदिण्णाई'-.--कर्मों का उदय में आना, उदयप्राप्त होना उदीर्ण कहलाता है। अर्थात्-कर्म जब अपना फल देने लगता है, तब उदयप्राप्त या उदीर्ण कहलाता है। 'नो उवसंताई'-कर्म का उपशान्त न होना / उपशान्त न होने के यहाँ दो अर्थ हैं--(१) कर्मबन्ध का सर्वथा अभाव को प्राप्त न होना, (2) अथवा कर्मबन्ध (बद्ध) हो चुकने पर भी निकाचित या उदयादि अवस्था के उद्रेक से रहित न होना / ये सभी शब्द कर्मसिद्धान्त के पारिभाषिक शब्द हैं।' आशय-प्रस्तुत प्रसंग में इनसे आशय यही है कि रत्नप्रभादि तीन नरकपृथ्वी के जिस नारक ने पूर्वकाल में तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध किया है और बांधा हुआ वह कर्म उदय में आया है, 1. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ-ठिप्पण) भा. 1, पृ. 325-326 2. पण्णावणासुत्तं (प्रस्तावना आदि) भा. 2, पृ. 114 3. प्रज्ञापनासूत्र, मलय, वृत्ति, पत्र 402-403 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org