________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [401 1452 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जोव तेजस्कायिकों में से उद्वत्त होकर विना अन्तर के (मनुष्य भव में) उत्पन्न हो कर क्या तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह) केवलिप्ररूपित धर्म का श्रवण प्राप्त कर सकता है। 1453. एवं वाउक्काइए वि / [1453] इसी प्रकार वायुकायिक के विषय में भी समझ लेना चाहिए / 1454. वणप्फइकाइए णं 0 पुच्छा। गोयमा! जो इण? सम8, अंतकिरियं पुण करेज्जा। [1454 प्र.] वनस्पतिकायिक जीव के विषय में पृच्छा है (कि क्या वह वनस्पतिकायिकों में से निकल कर तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकता है ? ) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु वह अन्तक्रिया कर सकता है / 1455. बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिए णं * पुच्छा। गोयमा ! णो इण? सम?, मणपज्जवणाणं पुण उप्पाडेज्जा। [1455 प्र.] द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय के विषय में प्रश्न है (कि क्या ये अपने-अपने भवों में से उद्वृत्त हो कर सीधे तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ?) [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, (किन्तु ये) मनःपर्यवज्ञान का उपार्जन कर सकते हैं / 1456. पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूस-वाणमंतर-जोइसिए णं 0 पुच्छा। गोयमा ! णो इण8 सम8, अंतकिरियं पुण करेज्जा। [1456 प्र.] अब पृच्छा है (कि क्या) पचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिक, मनुष्य, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्कदेव अपने-अपने भवों से उद्वर्तन करके सीधे तीर्थंकरत्व प्राप्त कर सकते हैं ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, किन्तु ये अन्तक्रिया (मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं / 1457. सोहम्मगदेवे णं भंते ! अणंतरं चयं चइत्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा? गोयमा! अत्थेगइए लभेज्जा, प्रत्थेगइए णो लभेज्जा, एवं जहा रयणप्पभापुढविणेरइए (सु. 1444) / [1457 प्र.] भगवन् ! सौधर्मकल्प का देव, अपने भव से च्यवन करके सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (सौधर्मकल्पक देव तीर्थकरत्व) प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं करता, इत्यादि (अन्य सभी) बातें रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के (विषय में सू. 1444 में उक्त कथन के) समान जाननी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org