________________ 408] [प्रज्ञापनासून लान्तककल्प में होता है। तैरश्चिकों का उपपात जघन्य भवनवासियों में और उत्कृष्ट सहस्रारकल्प में, आजीविकों का उपपात जघन्य भवनपतियों में, और उत्कृष्ट अच्युतकल्प में होता है, इसी प्रकार आभियोगिक साधकों का उपपाद भी जान लेना चाहिए। स्वलिंगी (समान वेष वाले) साधुनों का तथा दर्शन-व्यापन्न व्यक्तियों का उपपात जघन्य भवनवासीदेवों में और उत्कृष्ट उपरिम-ग्रेवेयकदेवों में होता है। विवेचन-मर कर देवलोकों में उत्पन्न होने वालों की चर्चा–प्रस्तुत सूत्र (1470) में भविष्य में देवगति में जाने वाले विविध साधकों के विषय में चर्चा की गई है कि वे मरकर कहाँ, किस जाति के देवों में उत्पन्न हो सकते हैं ? वस्तुत: इस चर्चा विचारणा का परम्परा से अन्तक्रिया से सम्बन्ध है / विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों के विशेषार्थ---असंयत भव्यद्रव्यदेव : दो अर्थ-(१) चारित्र के परिणामों से शून्य (भव्य देवत्वयोग्य अथवा मिथ्यादृष्टि अभव्य या भव्य श्रमणगुणधारक अखिल सामाचारी के अनुष्ठान से युक्त द्रव्यलिंगधारी (मलयगिरि के मत से) तथा (2) अन्य आचार्यों के मतानुसार-देवों में उत्पन्न होने योग्य असंयतसम्यग्दृष्टि जीव / अविराधितसंयम--प्रव्रज्याकाल से लेकर जिनके चारित्रपरिणाम अखण्डित रहे हैं, किन्तु संज्वलन कषाय के सामर्थ्य से अथवा प्रमत्तगुणस्थानकवश स्वल्प मायादि दोष की संभावना होने पर भी जिन्होंने सर्वथा प्राचार का उपधात नहीं किया है, वे अविराधितसयम हैं। विराधितसंयम-जिन्होंने संयम को सर्वात्मना खण्डित-विराधित कर दिया है, प्रायश्चित्त लेकर भी पन: खण्डित संयम को सांधा (जोडा) नहीं है, वे विराधितसंयम हैं / अविराधितसंयमासंयम-वे श्रावक, जिन्होंने देशविरतिसंयम को स्वीकार करने के समय से देशविरति के परिणामों को अखण्डत रखा है। विराधितसंयमासंयमवे श्रावक, जिन्होंने देशविरतिसंयम को सर्वथा खण्डित कर दिया और संयमासंयम के खण्डन का प्रायश्चित्त लेकर पुनर्नवीकरण नहीं किया है; वे / असंज्ञी-मनोलब्धि से रहित अकामनिर्जरा करने वाले साधक / तापस---बालतपस्वी, जो सूखे या वृक्ष से झड़े हुए पत्तों आदि का उपभोग करते हैं। कान्दपिक-व्यवहार से चारित्रपालन करने वाले, किन्तु जो कन्दर्प एवं कुत्सित चेष्टा करते हैं, हँसो-मजाक करते हैं, लोगों को अपनी वाणी और चेष्टा से हँसाते हैं। हाथ की सफाई, जादू आदि बाह्य चमत्कार बताकर लोगों को विस्मय में डाल देते हैं। चरक-परिव्राजक-कपिलमतानुयायी त्रिदण्डो, जो धाटो के साथ भिक्षाचर्या करते हैं अथवा चरक-कच्छोटक ग्रादि साधक एवं परिव्राजक / किल्विषिक-व्यवहार से चारित्रवान् किन्तु जो ज्ञान, (दर्शन, चारित्र) केवली, धर्माचार्य एवं सर्वसाधुओं का अवर्णवाद करने का पाप करते हैं, अथवा इन के साथ माया (कपट) करते हैं। दूसरे के गुणों और अपने दोषों को जो छिपाते हैं, जो पर-छिद्रान्वेषी हैं, चोर की तरह सर्वत्र शंकाशील, गूढाचारी, असत्यभाषी, क्षणे रुष्टा क्षणे तुष्टा (तुनुकमिजाजी) एवं निह्नव हैं, वे किल्विषिक कहलाते हैं। तैरश्चिक-जो साधक गाय आदि पशुग्रों का पालन करके जीते हैं, या देशविरत हैं / आजीविक-जो अविवेकपूर्वक लाभ पूजा, सम्मान, प्रसिद्धि, आदि के लिए चारित्र का पालन करते हुए आजीविका करते हैं, अथवा प्राजीविकमत (गोशालकमत) के अनुयायी पाखण्डिविशेष / आभियोगिक-- जो साधक अपने गौरव के लिए चूर्ण योग विद्या, मंत्र, तत्र आदि से दूसरों का वशीकरण, सम्मोहन, आकर्षण आदि (अभियोग) करते हैं / वे केवल व्यवहार से चारित्रपालन करते हैं,किन्तु मन्त्रादिप्रयोग करते हैं। स्वलिंगी-दर्शनव्यापन-जो साधु रजोहरण आदि साधुवेष से स्वलिंगी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org