________________ यीसवाँ अन्तक्रियापद] [399 पंचम : तोर्थकरद्वार 1444. रयणप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! रयणप्पमापुढविणेरइएहितो अणंतरं उब्वट्टिता तित्थगरतं लभेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा। से केण?णं भंते ! एवं वुच्चति अत्थेगइए लभेज्जा, अत्थेगइए णो लभेज्जा ? गोयमा ! जस्स णं रयणप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाई कम्माइं बद्धाइं पुट्ठाई निधत्ताई कडाई पटवियाई णिविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमण्णागयाई उदिण्णाई णो उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइए रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरतं लभेज्जा, जस्स णं रयणप्पभापुढविणेरइयस्स तित्थगरणाम-गोयाई णो बद्धाइं जाव णो उदिण्णाई उवसंताई भवंति से णं रयणप्पभापुढविणेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता तित्थगरत्तं णो लभेज्जा। ___ से तेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए लभेज्जा अत्थेगइए णो लभेज्जा। [1444 प्र.] भगवन् ! (क्या) रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभा-पृथ्वी के नैरयिकों से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त करता है ? [उ.] गौतम ! उनमें से कोई तीर्थकरत्व प्राप्त करता है और कोई नहीं प्राप्त कर पाता। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि (रत्नप्रभापृथ्वी का नारक) सीधा (मनुष्य भव में उत्पन्न होकर) कोई तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है और कोई नहीं कर पाता? उ.] गौतम ! जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक ने (पहले कभी) तीर्थकर नाम-गोत्र कर्म बद्ध किया है, स्पृष्ट किया है, निधत्त किया है, प्रस्थापित, निविष्ट और अभिनिविष्ट किया है, अभिसमन्वागत (सम्मुख प्रागत) है, उदीर्ण (उदय में पाया) है किन्तु (वह) उपशान्त नहीं हुया है, वह रत्नप्रभापृथ्वी का नैरयिक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से उदवृत्त होकर सीधा (मनुष्यभव में उत्पन्न होकर) तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है, किन्तु जिस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक के तीर्थकर नामगोत्र कर्म बद्ध नहीं होता यावत् उदीर्ण नहीं होता, अपितु उपशान्त होता है, वह रत्नप्रभापृथ्वी का नारक रत्नप्रभापृथ्वी से निकल कर सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि कोई नैरयिक तीर्थकरत्व प्राप्त करता है और कोई प्राप्त नहीं कर पाता / 1445. एवं जाव वालुयप्पभापुढविणेरइएहितो तित्थगरत्तं लभेज्जा। [1445] इसी प्रकार यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में से (निकल कर कोई नारक मनुष्यभव प्राप्त करके) सीधा तीर्थकरत्व प्राप्त कर लेता है और (कोई नारक नहीं प्राप्त करता / ) 1446. पंकप्पभापुढविणेरइए णं भंते ! पंकप्पमापुढविणेरइएहितो अणंतरं उघट्टित्ता तित्थगरत्तं लभेज्जा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org