________________ 39.] [प्रज्ञापनासन पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में या मनुष्यों के नारक के समान वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों में नारक के समान मनुष्य उपर्युक्त जीवों में नारक के समान वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक भवनपति देवों के समान उत्पत्ति नारक के समान तिर्यचपंचेन्द्रियों और मनुष्यों की उपलब्धि में अन्तर-यों तो तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों के समान प्राय: मनुष्य से सम्बन्धित सारी वक्तव्यता है, किन्तु मनुष्यों की सर्वभावों की संभावना होने से उनको मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान उपलब्ध हो सकता है, अनगा रत्व भी प्राप्त हो सकता है।' सिज्झज्जा आदि पदों का अर्थ पहले लिखा जा चुका है। नैरयिकों की सीधी उत्पत्ति नहीं-नैरयिकों के भवस्वभाव के कारण वे नैरयिकों में से मर कर सीधे नैरयिकों में, भवनपति, वानव्यन्तर ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों में उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि नैर्रायकों का नैयिकभव या देवभव का आयुष्यबन्ध होना असम्भव है / 2 / / पृथ्वीकायिकों की उत्पत्ति प्रादि-पृथ्वीकायिक जीव नारकों और देवों में सीधे उत्पन्न नहीं होते, क्योंकि उनमें विशिष्ट मनोद्रव्य सम्भव नहीं होता, इस कारण तीव्र संक्लेश एवं विशुद्ध अध्यवसाय नहीं हो सकता / मनुष्यों में उत्पन्न होने पर ये अन्तक्रिया भी कर सकते हैं / 3 भवनपति देवों की उत्पत्ति आदि-असुरकुमारादि 10 प्रकार के भवनपति देव पृथ्वी-वायुवनस्पति में उत्पन्न होते हैं। उधर ईशान (द्वितीय) देवलोक तक उनकी उत्पत्ति होती है। इन देवों में उत्पन्न होने पर वे केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण नहीं कर सकते। शेष सब बातें नैरयिकों के समान समझ लेनी चाहिए। तेजस्कायिक, वायुकायिक का मनुष्यों में उत्पत्तिनिषेध–ये दोनों सीधे मनुष्यों में उत्पन्न नहीं हो सकते, क्योंकि इनके परिणाम क्लिष्ट होने से इनके मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और मनुष्यायु का बन्ध होना असम्भव होता है। ये तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में उत्पन्न होकर श्रवणेन्द्रिय प्राप्त होने से केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकते हैं, किन्तु संक्लिष्ट परिणाम होने से कैवलिकोवोधि (धर्म) का बोध" प्राप्त नहीं कर सकते। विकलेन्द्रियों की उत्पत्ति प्ररूपणा--द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीव, पृथ्वीकायिकों के समान देवों और नारकों को छोड़ कर शेष समस्त स्थानों में उत्पन्न हो सकते हैं। ये तथाविध भवस्वभाव के कारण अन्तक्रिया नहीं कर पाते, किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने पर अनगार बन कर मनःपर्यवज्ञान तक भी प्राप्त कर सकते हैं / 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 400 2. वही, पत्र 400 3. वही, पत्र 401 4. वही, पत्र 400 5. वही. पत्र 401 6. वही, पत्र 402 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org