________________ [प्रज्ञापनासूत्र [1437-4 प्र.] भगवन् ! जो केवलबोधि (का अर्थ) समझता है, (क्या) वह (उस पर) श्रद्धा करता है ? प्रतीति करता है ? (और) रुचि करता है ? [उ.] हाँ गौतम ! (वह) श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता है। [5] जे णं भंते ! सद्दहेज्जा 3' से णं आमिणिबोहियणाण-सुयणाण-प्रोहिणाणाणि उप्पाडेज्जा ? हंता गोयमा ! उप्पाडेज्जा। [1437-5 प्र.] भगवन जो श्रद्धा-प्रतीति-रुचि करता है, (क्या) वह प्राभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान उपार्जित (प्राप्त कर सकता है ? / [उ.J हाँ, गौतम ! (वह आभिनिबोधिक-श्रुत-अवधि ज्ञान) प्राप्त कर सकता है / [6] जे णं भंते ! आमिणिबोहियणाण-सुयणाण-ओहिणाणाई उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा सीलं वा जाव' पडिज्जित्तए? गोयमा ! णो इण? सम? / [1437-6 प्र.] भगवन् ! जो आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान प्राप्त करता है, (क्या) वह शील, (आदि) से लेकर यावत् पोषधोपवास तक अंगीकार कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 1438. एवं प्रसुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु / [1438] इसी प्रकार (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च को, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों में से उद्वृत्त हो कर सोधा) असुरकुमारों में यावत् स्तनितकुमारों में उत्पत्ति के विषय में (पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से निरन्तर उद्वत्त होकर उत्पन्न हुए नारक की वक्तव्यता के समान समझना चाहिए / ) 1439. एगिदिय-विलिदिएसु जहा पुढविक्काइए (सु. 1428[1-3]) / [1436] एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों में (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों को) उत्पत्ति की वक्तव्यता (सू. 1428-[1-3] में उक्त) पृथ्वीकायिक जीवों की उत्पत्ति के समान समझ लेनी चाहिए। 1440. पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु मणूसेसु य जहा गैरइए (सु. 1420-21) / [1440] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीवों और मनुष्यों में (सू. १४२०-२१में) जैसे नैरयिक के (उत्पाद की प्ररूपणा की गई) वैसे ही पंचेन्द्रियतिर्यञ्च को प्ररूपणा करनी चाहिए। 1441. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिएसु जहा णेरइएसु उववज्जेज्जत्ति पुच्छा भणिया (सु. 1437) / [1441] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में पंचेन्द्रियतिर्यञ्च के उत्पन्न होने 2. 3' का अंक प्रतीति और रुचि शब्द का द्योतक है। 3. यहाँ 'जाव' शब्द (1420-6 में उक्त) 'सीलं वा, वयं वा, गुणं वा, वेरमण वा, पन्चक्खाणं वा पोसहोववासं वा' का सूचक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org