Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अठारहवां कायस्थितिपद। [ 325 क्रोधादिकषाययुक्त जीवों की कायस्थिति का विचार है। सप्तम लेण्याद्वार में विविध लेश्या वाले जीवों की स्वपर्याय में रहने की कालस्थिति बताई है। अष्टम सम्यक्त्वद्वार में सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि और मिश्रदृष्टि वाले जीवों की पर्याय स्थिति का विचार है। इसके पश्चात् क्रमश: ज्ञान, दर्शन, संयत, उपयोग पाहार का काल बताया है। इसके पश्चात् भाषक, परीत, पर्याप्त, सूक्ष्म, संज्ञी, भवसिद्धिक, एवं चरम आदि द्वारों के माध्यम से तद्विशिष्ट जीव स्व-स्वपर्याय में निरन्तर कितने काल रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया / इक्कीसवें प्रस्तिकाय द्वार में धर्मास्तिकाय आदि अजीवों की काय स्थिति का विचार किया गया है।' * जन्म-मरण की परम्परा से मुक्ति चाहने वाले मुमुक्षु जीवों के लिए कायस्थिति का यह चिन्तन अतीव उपयोगी है। [00 1. पग्णवणासुत्तं (मू. पा.) भा. 1, पृ. 304 से 317 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org