________________ 364] [प्रज्ञापनासून सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं वणप्फइकालो / दारं 15 // [1375 प्र.] भगवन् ! अभाषक जीव अभाषकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1375 उ.] गौतम ! अभाषक तीन प्रकार के कहे गये हैं-(१) अनादि-अपर्यवसित, (2) अनादि-सपर्यवसित और (3) सादि-सपर्यवसित / उनमें से जो सादि-सपर्यवसित हैं, वे जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकालपर्यन्त (अभाषकरूप में रहते हैं)। -पन्द्रहवाँ द्वार / / 15 / / विवेचन--पन्द्रहवाँ भाषकद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. 1374-1375) में भाषक और प्रभाषक जीव के स्वपर्याय में अवस्थान का कालमान प्रतिपादित किया गया है / भाषक का कालमान-- यहाँ भाषक का अवस्थानकाल निरन्तर जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक जो बताया गया है, वह वचनयोगी की अपेक्षा से समझना चाहिए।' प्रभाषक का कालमान--सादि-सान्त भाषक (जो भाषक होकर फिर प्रभाषक हो गया है, वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक प्रभाषक पर्याय से युक्त रहता है, फिर कुछ काल रुक कर भाषक बन जाता है और फिर अभाषक हो जाता है / अथवा द्वीन्द्रिय आदि भाषक जीव एकेन्द्रियादि अभाषकों में उत्पन्न होकर वहाँ अन्तमुहर्त तक जीवित रह कर फिर द्वीन्द्रियादि भाषकरूप में उत्पन्न होता है। उस समय जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक अभाषक रहता है। उत्कृष्ट बनस्पतिकाल-अर्थात्-पूर्वोक्त अनन्तकाल तक लगातार प्रभाषक बना रहता है / सोलहवाँ परीतद्वार 1376. परित्ते णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! परित्ते दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-कायपरित्ते य 1 संसारपरित्ते य 2 / [1376 प्र.] भगवन् ! परीत जीव कितने काल तक निरन्तर परीतपर्याय में रहता है ? [1376 उ.] गौतम ! परीत दो प्रकार के हैं / यथा-(१) कायपरीत और (2) संसारपरीत / 1377. कायपरित्ते गं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो असंखेज्जाप्रो उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणीनो / [1377 प्र.] भगवन् ! कायपरीत कितने काल तक कायपरीत-पर्याय में रहता है ? [1377 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक, (अर्थात्-.) असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसपिणियों तक (कायपरीत-पर्याय में निरन्तर बना रहता है)। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 394 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 394 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org