________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [389 1422. गैरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु उववज्जेज्जा? गोयमा! गो इण? सम?। [1422 प्र.] भगवन् ! नारक जीव, नारकों में से निकल कर (क्या सीधा) वानव्यन्तर, ज्योतिष्क या वैमानिकों में उत्पन्न होता है ? {उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / विवेचन--नारकों में से नारकादि में उत्पत्ति-धर्मश्रवणादि-विषयक चर्चा–प्रस्तुत द्वार के प्रथम 6 सूत्रों (सू. 1417 से 1422 तक) में नारकों में से मर कर सीधे नारकों, भवनपतियों, विकलेन्द्रियों, तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों, मनुष्यों, वानव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों में उत्पत्ति को चर्चा है / फिर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले जीव केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण, शुद्ध बोधि, श्रद्धा, प्रतीति, रुचि, मति-श्रुतज्ञान, शील-व्रत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यान-पौषधोपवासग्रहण, अवधि-मनःपर्यव-केवल ज्ञान एवं सिद्धि (मुक्ति), इनमें से क्या-क्या प्राप्त कर सकते हैं ? इसकी चर्चा की गई है। उद्वर्तन : विशेषार्थ में-प्रस्तुत शास्त्र में 'उद्वत' शब्द समस्त गतियों में होने वाले 'मरण' के लिए प्रयुक्त किया गया है, जबकि 'षट्खण्डागम' में मरण के लिए तीन शब्द प्रयुक्त किये गए हैंनरक, भवनवासी, वाणव्यन्तर एवं ज्योतिष्क गति में से मर कर जाने वालों के लिए 'उद्वत्त', तिर्यञ्च और मनुष्यगति में से मर कर जाने वालों के लिए 'कालगत' और वैमानिक देवों में से मर कर जाने वालों के लिए 'च्युत' शब्द / नारकों का उद्वर्तन तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में इस पाठ से स्पष्ट है कि नारकजीव नारकों में से निकल कर सीधा नारकों, भवनपतियों और विकलेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं हो सकता है, उसका कारण पूर्वोक्त ही है। वह नारकों में से निकल कर सीधा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों में उत्पन्न हो सकता है। तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य में उत्पन्न होने वाले भूतपूर्व नारकों में से कोई-कोई केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण, केवलबोधि, श्रद्धा-प्रतीति-रुचि, आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, शील-व्रत-गुण-विरमण-प्रत्याख्यान-पोषधोपवास-ग्रहण, अवधिज्ञान तक प्राप्त कर सकते है, किन्तु मनुष्यों में उत्पन्न होने वाले भूतपूर्व नारकों में से कोई-कोई इससे आगे बढ़कर अनगारत्व, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान और सिद्धत्व को प्राप्त कर सकते हैं / विशिष्ट शब्दों के अर्थ-केवलिपन्नत्तं धम्म-केवली द्वारा प्ररूपित-उपदिष्ट श्रुत-चारित्ररूप धर्म को / लभेन्ज सवणयाए-श्रवण प्राप्त करता है / केवलं बोहिं:दो अर्थ (१)केवल-विशद्ध बोधि--धर्मप्राप्ति (धर्मदेशना), (2) केवली द्वारा साक्षात् या परम्परा से उपदिष्ट (कैवलिक) बोधि / 1. पण्णवणासुतं (परिशिष्ट) भा. 2, पृ. 113 2. (क) बही, पृ. 113 3. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका, भा. 4, पृ. 509 (ख) षट्खण्डागम पृ. 6, पृ. 477 में से विशेषार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org