________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [387 |1420-5 प्र. भगवन् ! जो (उस पर) श्रद्धा, प्रतीति और रुचि करता है (क्या) वह प्राभिनिबोधिकज्ञान (और) श्रुतज्ञान उपाजित (प्राप्त) कर लेता है ? [उ.| हाँ गौतम ! वह (इन ज्ञानों को) प्राप्त कर सकता है। [6] जे णं भंते ! आभिणिबोहियणाण-सूयणाणाई उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा सोलं वा वयं वा गुणं वा वेरमणं वा पच्चक्खाणं वा पोसहोववासं था पडिवज्जित्तए ? गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अत्यंगइए णो संचाएज्जा / [1420-6 प्र. भगवन् ! जो (अनन्तरागत तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) अाभिनिवोधिकज्ञान एवं श्रुतज्ञान को प्राप्त कर लेता है, (क्या) वह शील, व्रत, गुण, विरमण, प्रत्याख्यान अथवा पौषधोपवास अंगीकार करने में समर्थ होता है ? [उ. | गौतम ! कोई (तथाकथित तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) (शील यावत् पौषधोपवास को अंगीकार) कर सकता है और कोई नहीं कर सकता / [7] जे णं भंते ! संचाएज्जा सीलं वा जाव पोसहोववासं वा पडिवज्जित्तए से णं ओहिणाणं उप्पाडेज्जा? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो उप्पाडेज्जा / [1420-7 प्र.] भगवन् ! जो (तथाकथित तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) शील यावत् पौषधोपवास अंगीकार कर सकता है (क्या) वह अवधिज्ञान को उपाजित (प्राप्त) कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (अवधिज्ञान) प्राप्त कर सकता है (और) कोई नहीं प्राप्त कर सकता। [8] जे णं भंते प्रोहिणाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए? गोयमा ! जो इण8 सम8। [1420-8 प्र. भगवन् ! जो (तथाकथित तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय) अवधिज्ञान उपाजित कर लेता है, (क्या) वह मुण्डित हो कर अगारत्व से अनगारत्व (अनगारधर्म) में प्रवजित होने में समर्थ है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1421. [1] जेरइए णं भंते ! जेरइएहितो अणंतरं उबट्टित्ता मणूसेसु उबबज्जेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, अत्थेगइए णो उववज्जेज्जा। [1421-1 प्र.] भगवन् ! नारक जीव, नारकों में से उद्वर्त्तन (निकल) कर क्या सीधा मनुष्यों में उत्पन्न हो जाता है? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (मनुष्यों में ) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org