Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 388] [प्रज्ञापनासूत्र [2] जे णं भंते ! उवयज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! जहा पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु (सु. 1420 [2-7]) जाव जे णं भंते ! ओहिणाणं उप्पाडेज्जा से णं संचाएज्जा मुंडे भविता अगाराप्रो अणगारियं पध्वइत्तए ? गोयमा ! अत्थेगइए संचाएज्जा, अस्थेगइए णो संचाएज्जा। [1421-2 प्र.] भगवन् ! जो (नारकों में से अनन्तरागत जीव मनुष्यों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केलि-प्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर लेता है ? उ.] गौतम ! जैसे पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में (आकर उत्पन्न जीव) के विषय में धर्मश्रवण से (लेकर) यावत् जो अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, यहाँ तक कहा है, वैसे ही यहां कहना चाहिए। (विशेष प्रश्न यह है ~) भगवन् ! जो (मनुष्य) अवधिज्ञान प्राप्त कर लेता है, (क्या) वह मुण्डित होकर अगारत्व से अनगारधर्म में प्रवजित हो सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई प्रबजित हो सकता है और कोई प्रजित नहीं हो सकता / [3] जे णं भंते ! संचाएज्जा मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइत्तए से गं मणपज्ज. वणाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, प्रत्थेगइए णो उप्पाडेज्जा। [1421-3 प्र.] भगवन् ! जो (तथाकथित मनुष्य) मुण्डित होकर अगारित्व से अनगारधर्म में प्रवजित होने में समर्थ है, (क्या) वह मनःपर्यवज्ञान को उपाजित कर सकता है ? [उ.] गौतम ! (उनमें से) कोई (मनःपर्यवज्ञान को) उपाजित कर सकता है (और) कोई उपाजित नहीं कर सकता। [4] जे णं भंते ! मणपज्जवणाणं उप्पाडेज्जा से णं केवलणाणं उप्पाडेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए उप्पाडेज्जा, अत्थेगइए णो उप्पाडेजा। 1421-4 प्र.] भगवन् ! जो (तथाकथित मनुष्य) मनःपर्यवज्ञान को उपाजित कर लेता है, (क्या) वह केवल ज्ञान को उपार्जित कर सकता है ? उ. गौतम ! (उनमें से) कोई केवलज्ञान को उपाजित कर सकता है (और) कोई उपाजित नहीं कर सकता। [5] जे णं भंते ! केवलणाणं उप्पाडेज्जा से गं सिझज्जा बुझेज्जा मुच्चेज्जा सव्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा? गोयमा ! सिज्झेज्जा जाव सम्वदुक्खाणं अंतं करेज्जा / [1421-5 प्र.) भगवन् ! जो (तथाकथित मनुष्य) केवलज्ञान को उपार्जित कर लेता है, (क्या) वह सिद्ध हो सकता है, बुद्ध हो सकता है, मुक्त हो सकता है, यावत् सब दुःखों का अन्त कर सकता है ? [उ.] (हाँ) गौतम ! वह (अवश्य हो) सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त कर देता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org