________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [391 1424. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववज्जिज्जा? गोयमा ! णो इण? सम? / एवं जाव थणियकुमारेसु / [1424 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल (उद्वर्तन) कर (सीधा) असुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों में भी (असुरकुमार. असुरकुमारों में से उद्वर्तन करके सोधे उत्पन्न नहीं होते, यह समझ लेना चाहिए)। 1425. [1] असुरकु मारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता पुढविक्काइएसु उवबज्जेज्जा? हता! गोयमा ! अत्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्थेगइए नो उववज्जेज्जा। [1425-1 प्र.] भगवन् ! (क्या) असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर सीधा पृथ्वीकायिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! (उसमें से) कोई (पृथ्वीकायिक में) उत्पन्न होता है (और) कोई उत्पन्न नहीं होता। [2] जे णं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्मं लभेज्जा सवणयाए ? गोयमा ! नो इण? सम? / [1425-2 प्र.] भगवन् ! जो (असुरकुमार पृथ्वीकायिकों में) उत्पन्न होता है, (क्या) वह केलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / [3] एवं आउ-वणप्फईसु वि। [1425-3 प्र.] इसी प्रकार अप्कायिक और वनस्पतिकायिक जीवों के (उत्पन्न होने तथा धर्मश्रवण के) विषय में समझ लेना चाहिए। 1426. [1] असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारेहितो अणंतरं उबट्टित्ता तेउ-वाउ- बेइंदियतेइंदिय-चरिदिएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इण? सम8 / अवसेसेसु पंचसु पंचेंदियतिरिक्खजोणियादिसु असुरकुमारे जहा रइए (सु. 1420-22) / [1426-1 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (क्या) सीधा (अनन्तर) तेजस्कायिक, वायुकायिक (तथा) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम यह अर्थ समर्थ नहीं है। अवशिष्ट पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक आदि (मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक) इन पांचों में असुरकुमार की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता [सू. 1420-22 में उक्त नैरयिक (की उत्पत्ति आदि की वक्तव्यता के अनुसार समझनी चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org