________________ 390] [प्रज्ञापनासूत्र प्रश्न का आशय---केवलिप्रज्ञप्तधर्म का श्रोता क्या उपर्युक्त कैवलिक बोधि को यथोक्तरूप से जानतासमझता है ? शील आदि शब्दों के विशिष्ट अर्थ-शीलब्रह्मचर्य, व्रत-विविध द्रव्यादिविषयक नियम, गुण, भावना आदि, अथवा उत्तरगुण, विरमण–अतीत स्थूल प्राणातिपात आदि से विरति, प्रत्याख्यान--अनागतकालीन स्थल प्राणातिपात प्रादि का त्याग, पोषधोपवास--पोषध---धर्म का पोषण करने वाले अष्टमी आदि पों में उपवास पोषधोपवास / ' __ अवधिज्ञान किनको?-तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान नहीं होता, गुणप्रत्यय होता है / शीलवत आदि विषयक गुणों के धारकों में जिनके उत्कृष्ट परिणाम होते हैं, उनको अवधिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम हो जाता है और उन्हें (तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों और मनुष्यों को, अवधिज्ञान प्राप्त होता है, सभी को नहीं / / मनःपर्यायज्ञान किनको?-मनःपर्यायज्ञान अनगार को ही प्राप्त प्राप्त होता है, वह भी उसी संयमी को होता है, जो समस्त प्रमादों से रहित हो, विविध ऋद्धियों से सम्पन्न हो। इसलिए तिर्यञ्चों को अनगारत्व भी प्राप्त नहीं होता, तब मनःपर्याय ज्ञान और केवलज्ञान कहाँ से प्राप्त होगा! मनुष्यों में भी उसी को मनःपर्यायज्ञान प्राप्त होता है, जो अनगार हो, अप्रमत्त तथा निर्मल चारित्री एवं ऋद्धिमान् हो।' मुंडे भविता : भावार्थ-मुण्ड दो प्रकार का होता है-द्रव्यमुण्ड और भावमुण्ड / केशादि कटाने से द्रव्यमुण्ड होता है , सर्वसंग-परित्याग से भावमुण्ड का ग्रहण किया गया है / अर्थात--भाव से मुण्डित होकर / सिझज्जा बुज्झेज्जा मुच्चेज्जा : प्रासंगिक विशेषार्थ--सिज्झज्जा-सर्व कार्य सिद्ध कर लेता है, कृतकृत्य हो जाता है, बुज्झज्जा-समस्त लोकालोक के स्वरूप को जानता-देखता है, मुच्चेज्जा-~भवोपनाही कर्मों से भी मुक्त हो जाता है / असुरकुमारादि को उत्पत्ति को प्ररूपणा--- 1423. असुरकुमारे णं भंते ! असुरकुमारहितो अणंतरं उव्यट्टित्ता रइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा! णो इण? सम? / {1423 प्र.] भगवन् ! असुरकुमार, असुरकुमारों में से निकल कर (सीधा) नैरपिकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। 1. प्रज्ञापना. मलय. वत्ति, पत्र 399 2. वही, पत्र 399 3. वही, पत्र 400 4. मुण्डो द्विधा--द्रव्यतो भावतश्च / द्रव्यतः केशाद्यपनयनेन, भावतः सर्वसंगपरित्यागेन। तत्रेह द्रव्य मुण्डत्वा संभवात् भावमुण्डः परिगृह्यते। वहीं, पत्र 400 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org