________________ वीसा अन्तक्रियापद] योनिकों और मनुष्यों में (उत्पत्ति के विषय में) [सू. 1420-21 में उक्त नैरयिक (की वक्तव्यता) के समान (कहना चाहिए। [5] वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु पडिसेहो / _[1428-5 | वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों में (पृथ्वीकायिक की उत्पत्ति का) निषेध (समझना चाहिए।) 1429. एवं जहा पुढविक्काइनो भणिग्रो तहेव पाउक्काइओ वि वणप्फइकाइओ वि भाणियम्वो। [1426] जैसे पृथ्वीकायिक (की चौवीस दण्डकों में उत्पत्ति के विषय में) कहा गया है, उसी प्रकार अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिक के विषय में भी कहना चाहिए / 1430. [1] तेउक्काइए णं भंते ! तेउक्काइएहितो प्रणतरं उव्वट्टित्ता रइएसु उववज्जेज्जा? गोयमा ! णो इण? सम?। [1430-1 प्र.] भगवन् ! तेजस्कायिक जीव, तेजस्कायिकों में से उद्वृत्त होकर क्या सीधा नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [2] एवं असुरकुमारेसु वि जाव थणियकुमारेसु वि। [1430-2] इसी प्रकार (तेजस्कायिक जीव की) असुरकुमारों से लेकर यावत् स्तनितकुमारों (तक) में (भी उत्पत्ति का निषेध समझना चाहिए / ) 1431. [1] पुढविक्काइय-आउ-तेउ-वाउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदिएसु अत्थेगइए उववज्जेज्जा, प्रत्येगइए णो उववज्जेज्जा / [1431-1] पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिकों में तथा द्वीन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रियों में कोई (तेजस्कायिक) उत्पन्न होता है और कोई उत्पन्न नहीं होता। [2] जे गं भंते ! उववज्जेज्जा से णं केवलिपण्णत्तं धम्म लभेज्जा सवणताए ? गोयमा ! नो इण? सम? / [1431-2 प्र.] भगवन् ! जो तेजस्कायिक (इनमें) उत्पन्न होता है, (क्या) बह केवलिप्रज्ञप्त धर्मश्रवण प्राप्त कर सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। 1432. [1] तेउक्काइए णं भंते ! तेउकाइएहितो अणंतरं उध्वट्टित्ता पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववज्जेज्जा? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org