________________ वीसवाँ अन्तक्रियापद] [385 MONYM 20. अनन्तरागत जीव जघन्य संख्या उत्कृष्ट संख्या समस्त भवनपति देवियाँ 1,2,3 पृथ्वीकाय, अप्काय वनस्पतिकायिक पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च 1,2,3 पंचेन्द्रिय तिर्यञ्ची (स्त्री) 1, 23 मनुष्य (नर) 1, 2, 3 मनुष्य (नारी) 1, 2, 3 वाणव्यन्तर देव 1, 2, 3 वाणव्यन्तर देवियाँ ज्योतिष्क देव 1, 2,3 ज्योतिष्क देवियाँ 1, 2, 3 वैमानिक देव 108 वैमानिक देवियाँ 1, 2, 3 अनन्तरागत जीव : पूर्वभव-पर्याय की अपेक्षा से--- यद्यपि नारक आदि जीव नरक आदि से निकल कर सीधे मनुष्यभव में आ जाने के बाद नारक आदि नहीं रहते, वे सब मनुष्य हो जाते हैं, फिर भी उन्हें शास्त्रकार ने जो अनन्तरागत प्रादि कहा है, वह कथन पूर्वभव-पर्याय की अपेक्षा से समझना चाहिए / वस्तुतः अनन्तरागत नारक आदि से तात्पर्य उन जीवों से है, जो पूर्वभव में नारक आदि थे और वहाँ से निकल कर सीधे मनुष्यभव में प्राकर मनुष्य बने हैं / चतुर्थ : उद्वत्तद्वार 1417. णेरइए णं भंते ! जेरइएहितो अणंतरं उम्वट्टित्ता णेरइएसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इण? सम?। [1417 प्र.] भगवन्! नारक जीव, नारकों में से उद्वर्तन (निकल) कर क्या (सीधा) नारकों में उत्पन्न होता है ? [उ.] गौतम! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है / 1418. णेरइए णं भंते ! णेरइएहितो अणंतरं उव्वट्टित्ता असुरकुमारेसु उववज्जेज्जा ? गोयमा ! णो इण8 समट्ठ। [1418 प्र.] भगवन् ! नारक जीव नारकों में से निकल कर क्या (मीधा) असुरकुमारों में उत्पन्न हो सकता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है / 1419. एवं निरंतरं जाव चरिदिएसु पुच्छा। गोयमा ! णो इण? सम?। 1. पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट) भा. 2, पृ. 113 2. (क) प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 398 (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी. भा. 4, पृ. 498 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org