Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ बीसवाँ अन्तक्रियापद] [383 प्रकार से अन्तक्रिया करते है। तेजस्कायिक, वायुकायिक जीव मर कर मनुष्य होते ही नहीं, इस कारण और तीन विकलेन्द्रिय जीव भवस्वभाव के कारण परम्परागत अन्तक्रिया ही करते हैं / ये जीव सीधे मनुष्यभव में आकर अन्तक्रिया नहीं कर सकते, ये अपने-अपने भव से निकल कर तिर्यञ्चादिभव करके फिर मनुष्यभव में पा कर अन्तक्रिया कर सकते हैं। इनके अतिरिक्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क प्रोर वैमानिकों में से जिनको योग्यता होती है, वे अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं और जिनकी योग्यता नहीं होती, वे परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं / इस सम्बन्ध में पूर्वोक्त युक्ति ही समझनी चाहिए।' तृतीय : एकसमयद्वार 1414. [1] अणंतरागया णं भंते ! णेरइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस / [1414-1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जवन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट दस (अन्तक्रिया करते हैं / ) [2] रयणप्पमापुढविणेरइया वि एवं चेव जाव वालुयप्पभापुढविणेरइया / [1414-2 (अनन्तरागत) रत्नप्रभापृथ्वी के नारक भी इसी प्रकार (अन्तक्रिया करते हैं) यावत् वालुकाप्रभापृथ्वी के नारक भी (इसी प्रकार अन्तक्रिया करते हैं / ) [3] अणंतरागता णं भंते ! पंकप्पभापुढविणेरइया एगसमएणं केवतिया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं चत्तारि / [1414-3 प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वो के अनन्तरागत कितने नारक एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? [उ.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट चार (अन्तक्रिया करते हैं।) 1415. [1] अणंतरागया णं भंते ! असुरकुमारा एगसमएणं केवइया अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एकको वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं दस / [1815-1 प्र.] भगवन् ! अनन्तरागत कितने असुरकुमार एक समय में अन्तक्रिया करते हैं ? | 3.] गौतम ! (वे एक समय में) जघन्य एक, दो या तीन (और) उत्कृष्ट दस (अन्तक्रिया करते हैं। [2] अणंतरागयानो णं भंते ! असुरकुमारोमो एगसमएणं केवतियानो अंतकिरियं पकरेंति ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्का वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं पंच / 1. (क) प्रजापना. म. वृत्ति, पत्र 397 (ख) पण्णवण्णासुत्तं (परिशिष्ट) भा. 2, पृ. 112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org