________________ अठारहवां कास्थितिपद] या पांच समय की नहीं, क्योंकि वह विग्रहगति यहाँ विवक्षित नहीं है। अतः जब तीन समय की विग्रहगति होती है, तब जीव, प्रारम्भ के दो समयों तक अनाहारक रहता है। अतएव आहारकत्व की प्ररूपणा में उन दो समयों से न्यून क्षद्रभवग्रहण का कथन किया गया है। उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक आहारक रहता है, तत्पश्चात् नियम से विग्रहगति होती है और विग्रहगति में अनाहारक-पर्याय हो जाती है / इसी कारण यहाँ अनन्तकाल नहीं कहा है।' छदमस्य-अनाहारक का कालमान-जघन्य एक समय तक और उत्कष्ट दो समय तक छद्मस्थ-अनाहारक जीव छदमस्थ-अनाहारकपर्याय में रहता है। यहाँ तीन समय वाली विग्रहगति की अपेक्षा से उत्कृष्ट दो समय का कथन किया गया है। चार और पांच समय वाली विग्रहगति यहाँ विवक्षित नहीं है। सयोगिभवस्थकेवली-अनाहारक का अवस्थानकालमान-(वह) अजघन्य-अनुत्कृष्ट तीन समय तक अनाहारकपर्याय में रहता है। यह विधान केवलीसमुद्घात की अपेक्षा से है। पाठ समय के केवलीसमुद्घात में तीसरे, चौथे और पांचवें समय में केवलो अनाहारकदशा में रहते हैं। इसमें जधन्य-उत्कृष्ट का विकल्प नहीं है।' पन्द्रहवाँ भाषकद्वार 1374. भासए गं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं / [1374 प्र.) भगवन् ! भाषक जीव कितने काल तक भाषकरूप में रहता है ? [1374 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक (भाषकरूप में रहता है।) 1375. प्रभासए गं० पुच्छा ? गोयमा ! अभासए तिविहे पण्णत्ते। तं जहा-प्रणाईए वा अपज्जबसिए 1 प्रणाईए वा (क) उज्जुया एगबंका, दुहतो बंका गती विणिदिट्ठा / जुज्जइ ति-चउर्वकावि नाम चउपंच समयायो / / 1 / / (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 393 प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 393 (क) दण्डे प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये / मन्थानमथ तृतीये लोकव्यापी चतुर्थे तु // 1 // संहरति पंचमे त्वन्तराणि मन्थानमथ तथा षष्ठे। सप्तमके तु कपाटं संहरति ततोऽष्टमे दण्डम् // 2 // औदारिकप्रयोक्ता प्रथमाष्टमसमययोरसाविष्टः। मिश्रीदारिकयोक्ता सप्तम-षष्ठ-द्वितीयेषु / / 3 / / कार्मणशरीरयोगी चतुर्थके पंचमे तृतीये च। समयत्रयेऽपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् // 4 // ----प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति., पत्रांक 393 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org