________________ वीसवां अन्तक्रियापद] [379 (10) रत्नद्वार-इममें सेनापति रत्न ग्रादि चक्रवर्ती के रत्नों की प्राप्ति से सम्बन्धित निरूपण है।' अन्तक्रिया : दो अर्थों में प्रस्तुत पद में अन्तक्रिया शब्द दो अर्थों में प्रयुक्त हुया है-- (1) कर्मों या भव के अन्त (क्षय) करने की क्रिया और (2) अन्त अर्थात्-अवसान (मरण) की क्रिया / वैसे तो जैनागमों में अन्तक्रिया समस्त कर्मों (या भव) के अन्त करने के अर्थ में रूढ़ है, तथापि भव का अन्त करने की क्रिया से दो परिणाम आते है-या तो मोक्ष प्राप्त होता है, या मरण होता है-- भव के शरीर से छुटकारा मिलता है। इसलिए यहाँ अन्तक्रिया शब्द इन दोनों (मोक्ष और मरण) अर्थों में प्रयुक्त हुआ है / प्रस्तुत पद में इसी अन्तक्रिया का विचार चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में दस द्वारों के माध्यम से किया गया है / इन दस द्वारों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रथम के तीन द्वारों में अन्तक्रियाअर्थात्-मोक्ष की चर्चा है और बाद के द्वारों का सम्बन्ध भी अन्तक्रिया के साथ है, किन्तु वहाँ अन्तक्रिया का अर्थ मृत्यु करें, तभी संगति बैठ सकती है। इसके अतिरिक्त इन द्वारों में अन्तक्रिया का अर्थ--मोक्ष भी घटित हो सकता है, क्योंकि उन द्वारों में उन-उन योनियों में उद्वर्तना आदि करने वाले को मोक्ष संभव है या नहीं ? ऐसा प्रश्न भी प्रस्तुत किया गया है / प्रथम : अन्तक्रियाद्वार 1407. [1] जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, प्रस्थेगइए णो करेज्जा। [1407-1 प्र.] भगवन् ! क्या जीव अन्तक्रिया करता है ? [उ.] हाँ, गौतम ! कोई जीव (अन्तक्रिया) करता है, (और) कोई जीव नहीं करता / [2] एवं रइए जाव वेमाणिए। [1407-2] इसी प्रकार नैरयिक से लेकर यावत् वैमानिक तक की अन्तक्रिया के सम्बन्ध में समझ लेना चाहिए। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र के प्रथम अंश में समुच्चयजीवों की अन्तक्रिया के सम्बन्ध में चर्चा की गई है, जबकि द्वितीय अंश में नैरयिक से वैमानिक तक चौवीस दण्डकवर्ती जीवों की अन्तक्रिया के विषय में चर्चा है। अन्तक्रिया-प्राप्ति-अप्राप्ति का रहस्य-जो जीव तथाविध भव्यत्व के परिपाकवश मनुष्यत्व प्रादि समग्र सामग्री प्राप्त करके उस सामग्री के वल से प्रकट होने वाले अतिप्रबल वीर्य के उल्लास से क्षपकश्रेणी पर आरूढ होकर, केवलज्ञान प्राप्त करके केवल घातिकर्मों का ही नहीं, अघातिकर्मों 1. प्रज्ञापनासूत्र, मलय. वत्ति पत्र 396397 2. (क) अन्तक्रियामिति---अन्तः-अवसानं, तच्च प्रस्तावादिह कर्मणामवसातव्यम्, तस्य क्रिया--करणमन्त क्रिया-कर्मान्तकरणं मोक्ष इति भावार्थ / -प्रज्ञापना. मन्नय. वृत्ति, पत्र 397 (ख) पण्णवण्णासुतं (परिशिष्ट-प्रस्तावनात्मक) भा. 2, पृ. 112 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org