Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 380] [प्रज्ञापनासूत्र का भी क्षय कर देता है, वही अन्त क्रिया करता है, अर्थात् समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करता है / इससे विपरीत प्रकार का जीव अन्तक्रिया (मोक्ष) प्राप्त नहीं कर पाता / इसी रहस्य के अनुमार समस्त जीवों को अन्तक्रिया की प्राप्ति-अप्राप्ति समझ लेनी चाहिए।' 1408. [1] रइए णं भंते ! रइएसु अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! णो इण? सम?। [1408-1 प्र.] भगवन् ! क्या नारक, नारकों (नरकगति) में रहता हुआ अन्तक्रिया करता है ? | उ.] गौतम ! यह अर्थ (बात) समर्थ (शक्य) नहीं है। [2] गैरइए णं भंते ! असुरकुमारेसु अंतकिरियं करेज्जा ? गोयमा ! णो इण? सम? / [1408-2 प्र.] भगवन् ! क्या नारक, असुरकुमारों में अन्तक्रिया करता है ? [उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। [3] एवं जाव वेमाणिएसु / णवरं मणूसेसु अंतकिरियं करेज्ज त्ति पुच्छा। गोयमा ! अत्थेगइए करेज्जा, अत्थेगइए णो करेज्जा। {1408-3] इसी प्रकार नारक की, यावत् वैमानिकों तक में (अन्तक्रिया की असमर्थता समझ लेनी चाहिए। [प्र.] विशेष प्रश्न (यह है कि) नारक क्या मनुष्यों में (आकर) अन्तक्रिया करता है ? [उ.] गौतम ! कोई नारक (अन्तक्रिया) करता है और कोई नहीं करता। 1409. एवं असुरकुमारे जाव वेमाणिए / एवमेते चउवीसं चउवोसदंडगा 576 भवंति / दारं 1 // [1406] इसी प्रकार असुरकुमार से लेकर यावत् वैमानिक तक के विषय में भी समझ लेना चाहिए। इसी तरह चौवीस दण्डकों (में से प्रत्येक) का चौवीस दण्डकों में (अन्तक्रिया का निरूपण करना चाहिए / ) (ये सब मिला कर 244 24 = ) 576 (प्रश्नोत्तर) हो जाते हैं। -प्रथम द्वार // 1 // विवेचन–नारक की नारकादि में अन्तक्रिया को असमर्थता का कारण---नारक जीव, नारक पर्याय में रहते हुए अन्तक्रिया इसलिए नहीं कर सकते कि समस्त कर्मों का क्षय (मोक्ष) तभी होता है, जब सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, ये तीनों मिलकर प्रकर्ष को प्राप्त हों / नैरयिक-पर्याय में सम्यग्दर्शन का प्रकर्ष कदाचित क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव में हो भी जाए, किन्तु सम्यग्ज्ञान के प्रकर्ष की योग्यता और सम्यक् चारित्र के परिणाम नारकपर्याय में उत्पन्न हो नहीं सकते, क्योंकि नारकभव का ऐसा हो स्वभाव है। 1. प्रज्ञापना, मलय. वृत्ति, पत्र 397 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org