________________ 376] [प्रज्ञापनासूत्र तथाविधयोग्यता प्राप्त करके अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर सकता है, इसलिए कहा जाता है कि कोई नारक मुक्त हो सकता है, कोई नहीं।' द्वितीय अनन्तरद्वार-में यह विचारणा की गई है कि नारकादि जीव अनन्तरागत अन्तक्रिया करते हैं या परम्परागत अन्तक्रिया करते हैं ? अर्थात्-कोई जीव नारकादि भव में से मर कर व्यवधान विना ही मनुष्यभव में आकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है, अथवा नारकादि भव के पश्चात् एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में प्राकर मुक्ति प्राप्त करता है ? इसका उत्तर यह है कि प्रारम्भ के चार नरकों में से आने वाला नारक अनन्तरागत और परम्परागत दोनों प्रकार से अन्तक्रिया कर सकता है। परन्तु बाद के तीन नरकों में से आने वाला नारक परम्परा से ही अन्तक्रिया कर पाता है, अर्थात्-नरक के बाद एक या अनेक भव करके फिर मनुष्यभव में आकर तथाविध साधना करके मोक्ष प्राप्त कर सकता है। भवनपति एवं पृथ्वीअप्-वनस्पतिकाय में से आने वाले जीव दोनों प्रकार से अन्तक्रिया कर सकते हैं / तेजस्कायिकवायुकायिक एवं विकलेन्द्रिय जीव परम्परागत ही अन्तक्रिया कर सकते हैं। तृतीय एकसमयद्वार-में अनन्तरागत अन्तक्रिया कर सकने वाले नारकादि एक समय में जघन्य और उत्कृष्ट कितनी संख्या में अन्तक्रिया करते हैं ? इसकी प्ररूपणा की गई है / चतुर्थ उदवत्तद्वार-में यह बताया गया है कि नैरयिक आदि चौवीस दण्डकवर्ती जीव मर कर सीधा (विना व्यवधान के) चौवीस दण्डकों में से कहाँ उत्पन्न हो सकता है ? यद्यपि यहाँ उद्वृत्त शब्द समस्त गतियों में होने वाले मरण के लिए प्रयुक्त है, परन्तु षट्खण्डागम में उसके बदले उद्वत्त, कालगत और च्युत शब्दों का प्रयोग किया गया है। सामान्यतया जैनागमों में वैमानिक तथा ज्योतिष्क देवों के अन्यत्र जाने के लिए च्युत, मनुष्यों के लिए कालगत और नारक, भवनवासी और वाणव्यन्तर के लिए उद्धृत्त शब्द-प्रयोग दिखाई देता है। इसके साथ ही इस द्वार में मर कर उस-उस स्थान में जाने के बाद जीव क्रमश: धर्मश्रवण, बोध, श्रद्धा, मतिश्रुतज्ञान, व्रतग्रहण, अवधिज्ञान, अनगारत्व, मनःपर्यायज्ञान, केवलज्ञान और अन्तक्रिया (सिद्धि), इन में से क्या-क्या प्राप्त हो सकते हैं ? इसकी चर्चा है / * पंचम तीर्थंकरद्वार में यह निर्देश किया है कि नारकादि मर कर सीधे मनुष्यभव में प्राकर तीर्थकरपद प्राप्त कर सकता है, या नहीं ? साथ ही यह भी बताया गया है कि अगर तीर्थंकरपद नहीं प्राप्त कर सकता है तो विकास क्रम में--अन्तक्रिया, विरति, विरताविरति, सम्यक्त्व, मोक्ष, धर्मश्रवण, मनःपर्यायज्ञान, इनमें से क्या प्राप्त कर सकता है ? * छठे से दसवें द्वार तक में क्रमश: चक्रवर्तीपद, बलदेवपद, वासुदेवपद, माण्डलिकपद एवं 1. प्रज्ञापना. मलय, वृत्ति, पत्र 397 2. वही, पत्र 397 3. षट्खण्डागम पुस्तक 6, पृ. 477 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org