________________ वीसइमं : अंतकिरियापयं वीसवाँ : अन्तक्रियापद प्राथमिक * यह प्रज्ञापनासूत्र का वीसवाँ अन्तक्रियापद है। * इस पद में विविध पहलुगों से अन्तक्रिया और उससे होने वाली विशिष्ट उपलब्धियों के विषय में गूढ़ विचारणा की गई है। * भारत का प्रत्येक प्रास्तिक धर्म और दर्शन या मत-पंथ पुनर्जन्म एवं मोक्ष में मानता है और अगला जन्म अच्छा मिले या जन्म-मरण से सर्वथा छुटकारा मिले, इसके लिए विविध साधनाएँ. तप, संयम, त्याग, प्रत्याख्यान, व्रत, नियम आदि का निर्देश करता है। प्राणी का जन्म लेना जितना महत्त्वपूर्ण है, उतना हो, बल्कि उससे भी अधिक उसके जीवन का अन्त महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अन्तक्रियापद में इसी का विचार किया गया है, ताकि प्रत्येक मुमुक्षु साधक यह जान सके कि किसकी अन्तक्रिया अच्छी और बुरी होती है, और क्यों ? * अन्तक्रिया का अर्थ है-भव (जन्म) का अन्त करने वाली क्रिया / इस क्रिया से दो परिणाम आते हैं--या तो नया भव (जन्म) मिलता है, अथवा मनुष्यभव का सर्वथा अन्त करके जन्म-मरण से सर्वथा मुक्त हो जाता है / अतः अन्तक्रिया शब्द यहाँ दोनों अर्थों में प्रयुक्त हुआ है'-(१) मोक्ष, (2) इस भव के शरीरादि से छुटकारा---मरण / * इस अन्तक्रिया का विचार प्रस्तुत पद में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में दस द्वारों द्वारा किया गया है-(१) अन्तक्रियाद्वार, (2) अनन्तरद्वार, (3) एक समयद्वार, (4) उद्वत्तद्वार, (5) तीर्थंकरद्वार, (6) चक्रीद्वार, (7) बलदेवद्वार, (8) वासुदेवद्वार, (6) माण्डलिकद्वार और (10) रत्नद्वार। प्रस्तुतपद के उपसंहार में बताया गया है, कौन-सा आराधक या विराधक मर कर कौन-कौन से देवों में उत्पन्न होता है ? अन्त में अन्तक्रिया से सम्बन्धित अपंज्ञो (अकामनिर्जरा युक्त जीव) के आयुष्यबन्ध की और उसके अल्पबहुत्व की चर्चा है / * प्रथम अन्तक्रियाद्वार–में यह विचारणा की गई है कि कौन जीव अन्तक्रिया (मोक्षप्राप्ति) कर लेता है, कौन नहीं ? एकमात्र मनुष्य ही इस प्रकार की अन्तक्रिया का अधिकारी है / जीव के नारक आदि अनेक पर्याय होते हैं। अतः नारकपर्याय में रहा हुअा जीव मनुष्यभव में जाकर 1. प्रज्ञापना. मलय. वृत्ति, पत्र 397 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org