________________ 370] [प्रज्ञापनासूत्र नोमवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक का कालमान-ऐसा जीव सिद्ध ही होता है, इसलिए सादिअपर्यवसित होता है।' इक्कीसवाँ अस्तिकायद्वार 1365. धम्मत्थिकाए गं० पुच्छा। गोयमा ! सम्वद्ध। [1395 प्र.] भगवन् ! धर्मास्तिकाय कितने काल तक लगातार धर्मास्तिकायरूप में रहता है ? [1365 उ.] गौतम ! वह सर्वकाल रहता है / 1366. एवं जाव प्रद्धासमए / दारं 21 // [1396] इसी प्रकार यावत् (अधर्मास्तिकाय, प्राकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और) अद्धासमय (कालद्रव्य) (के अवस्थानकाल के विषय में भी समझना चाहिए।) —इक्कीसवाँ द्वार / / 21 / / विवेचन-इक्कीसवाँ प्रस्तिकायद्वार-प्रस्तुत दो सूत्रों (1395-1396) में धर्मास्तिकायादि 6 द्रव्यों के स्व-स्वरूप में अवस्थानकाल की चर्चा की गई है। धर्मास्तिकायादि षट् द्रव्यों का अवस्थानकाल-धर्मास्तिकाय आदि छहों द्रव्य अनादि-अनन्त हैं / ये सदैव अपने स्वरूप में अवस्थित रहते हैं। बाईसवाँ चरमद्वार 1397. चरिमे पं० पुच्छा। गोयमा ! प्रणावीए सपज्जवसिए / [1397 प्र.] भगवन् ! चरमजीव कितने काल तक चरमपर्याय वाला रहता है ? [1367 उ.] गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित होता है / 1368. प्रचरिमे णं० पुच्छा। गोयमा ! प्रचरिमे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए वा अपज्जवसिए 2 / दारं 22 // // पण्णवणाए भगवतीए अट्ठारसमं काटिइपयं समत्तं / / [1398 प्र.) भगवन् ! अचरमजीव कितने काल तक अचरमपर्याय-युक्त रहता है ? [1398 उ.] गौतम ! अचरम दो प्रकार का कहा गया है / वह इस प्रकार-(१) अनादिअपर्यवसित और (2) सादि-अपर्यवसित / -बाईसवाँ द्वार / / 22 / / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org