________________ 368] [प्रज्ञापनासूत्र [1388 प्र.] भगवन् ! नोसूक्ष्म-नोबादर कितने काल तक पूर्वोक्त पर्याय से युक्त रहता है ? [1388 उ.] गौतम ! यह पर्याय सादि-अपर्यवसित है। अठारहवाँ द्वार / / 18 / / विवेचन-अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1386 से 1388 तक) में सूक्ष्म, बादर, नोसूक्ष्म-नोबादर के जघन्य और उत्कृष्ट अवस्थानकाल का निरूपण किया गया है। सूक्ष्म जीव का प्रवस्थानकाल--सूक्ष्म-जीव जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक सूक्ष्मपर्याययुक्त रहता है। वह असंख्यातकाल पृथ्वीकायिक जीव की कायस्थिति के काल जितना समझना चाहिए। नोसूक्ष्म-नोबादर जीव--सिद्ध हैं और सिद्धपर्याय सदाकाल रहती है।' उन्नीसवाँ संजीद्वार-- 1386. सग्णी णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसतपुहत्तं सातिरेगं / [1389 प्र.] भगवन् ! संज्ञी जीव कितने काल तक संज्ञीपर्याय में लगातार रहता है ? [1389 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्वकाल तक (निरन्तर संजीपर्याय में रहता है)। 1360. प्रसण्णी णं भंते ! * पुच्छा ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसणं वणप्फहकालो। [1390 प्र.] भगवन् ! असंज्ञी जीव असंज्ञी पर्याय में कितने काल तक रहता है ? [1390 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक (असंज्ञीपर्याय में निरन्तर रहता है)। 1361. णोसण्णीणोअसण्णी पं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए प्रपज्जवसिए / दारं 19 // [1391 प्र.] भगवन् ! नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी जीव कितने काल तक नोसंज्ञी-नोप्रसंज्ञी रहता है ? [1391 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। उन्नीसवाँ द्वार / / 16 / / विवेचन-उन्नीसवाँ संजीद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1389 से 1391 तक) में संज्ञी, असंज्ञी और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का कालमान बताया गया है। संजी-पर्याय की कालावस्थिति-जघन्य अन्तर्मुहर्त अर्थात् जब कोई जीव असंज्ञीपर्याय से निकलकर संज्ञीपर्याय में उत्पन्न होता है और उस पर्याय में अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर पुनः असंज्ञी-पर्याय में उत्पन्न हो जाता है, तब वह अन्तर्मुहुर्त तक ही संज्ञी-अवस्था में रहता है और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व काल तक संज्ञीजीव निरंतर संज्ञी रहता है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org