________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [ 367 [1384 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त तक (अपर्याप्त-अवस्था में रहता है)। 1385. णोपज्जत्तए-णोप्रपज्जत्तए पं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 17 // [1385 प्र.] भगवन् ! नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव कितने काल तक नोपर्याप्त-नोअपर्याप्तअवस्था में रहता है ? [1385 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित है। सत्तरहवाँ द्वार // 17 // विवेचन--सत्तरहवा पर्याप्तद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1383 से 1385 तक) में पर्याप्त, अपर्याप्त और नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीवों के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का काल प्रतिपादित किया गया है। तीनों के कालमान का विश्लेषण-(१) पर्याप्त जीव जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व तक लगातार पर्याप्त-पर्याय में रहता है, क्योंकि पर्याप्तलब्धि इतने समय तक ही रह सकती है। (2) अपर्याप्त जीव जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लगातार अपर्याप्त रहता है, इसके पश्चात् अवश्य ही पर्याप्त हो जाता है। (3) नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त जीव सिद्ध ही होता है और सिद्धत्व पर्याय सादि-अनन्त है।' अठारहवाँ सूक्ष्मद्वार 1386. सुहुमे गं भंते ! सुहुमे ति० पुच्छा ? गोयमा ! जहणणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुढविकालो। [1386 प्र.] भगवन् ! सूक्ष्म जीव कितने काल तक सूक्ष्म-पर्यायवाला लगातार रहता है ? [1386 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल तक (वह सूक्ष्म-पर्याय में रहता है)। 1387. बादरे पं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं जाव (सु. 1365) खेत्तमो अंगुलस्स प्रसंखेज्जइमार्ग। [1387 प्र.] भगवन् ! बादर जीव कितने काल तक (लगातार) बादर-पर्याय में रहता है ? [1387 उ.] गौतम ! वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यातकाल तक यावत् (सू. 1365 में उक्त कालत: असंख्यात उत्सपिणी-अवसर्पिणीकाल तथा) क्षेत्रतः अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण है। 1388. णोसुहमणोबादरे णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 18 // 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org