________________ [प्रज्ञापनासूत्र कायपरीत का स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थानकाल–प्रत्येकशरीरी जीव कायपरीत कहलाता है / वह जघन्य अन्तमुहर्त तक और उत्कृष्ट पृथ्वीकाल-अर्थात्--असंख्यातकाल तक कायपरीत बना रहता है। यदि कोई जीव निगोद से निकल कर प्रत्येक-शरीररूप में उत्पन्न होता है, उस समय वह अन्तर्मुहूर्त तक जीवित रह कर फिर निगोद में उत्पन्न हो जाता है / उस समय वह अन्तमुहूत्तं तक ही कायपरीत रहता है। अतएव यहाँ कायपरीत का जघन्य अवस्थानकाल अन्तर्मुहूर्त का कहा है। उत्कृष्ट रूप से कायपरीत असंख्यातकाल तक कायपरीत-पर्याय में निरन्तर रहता है / यहाँ असंख्यातकाल पृथ्वीकाय की कालस्थिति के जितना समझना चाहिए / असंख्यात उत्सर्पिणी-अवपिणी जितना पृथ्वीकाल यहाँ असंख्यातकाल विवक्षित है। क्षेत्रत:-असंख्यात लोकप्रमाण है। संसारपरीत का लक्षण-जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके अपने भवभ्रमण को परिमित कर लिया हो, वह संसारपरीत कहलाता है। उत्कृष्टतः अनन्तकाल व्यतीत होने पर संसारपरीत जीव अवश्य ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है / ___ काय-अपरीत और संसार-अपरीत-अनन्तकायिक जीव काय-अपरीत कहलाता है तथा संसार-अपरीत वह है, जिसने सम्यक्त्व प्राप्त करके संसार को परिमित नहीं किया है। काय-अपरीत जघन्य अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल (अनन्तकाल) तक निरन्तर काय-अपरीतपर्याययुक्त रहता है / जब कोई जीव प्रत्येक शरीर से उद्वर्तन करके निगोद में उत्पन्न होता है और वहाँ अन्तमुहर्त तक ठहर कर पुनः प्रत्येकशरीरी-पर्याय में उत्पन्न हो जाता है, उस समय जघन्य काल अन्तमुहर्त होता है / उत्कृष्ट वनस्पतिकाल जितना अनन्तकाल समझना चाहिए। उसके बाद अवश्य ही उद्वर्तना हो जाती है। द्विविष संसारापरीत-(१) अनादि-सान्त—जिसके संसार का अन्त कभी न कभी हो जाएगा, वह अनादि-सान्त संसारापरीत कहलाता है। तथा (2) अनादि-अनन्त-जिसके संसार का कदापि विच्छेद नहीं होगा, वह अनादि-अनन्त संसार-अपरीत कहलाता है। नोपरीत-नोअपरीत-ऐसा जीव सिद्ध होता है / यह पर्याय सादि-अनन्त है / ' सत्तरहवाँ पर्याप्तद्वार 1383. पज्जत्तए गं० पुच्छा ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहत्तं सातिरेगं / [1383 प्र.] भगवन् ! पर्याप्त जीव कितने काल तक निरन्तर पर्याप्त-अवस्था में रहता है ? [1383 उ.] गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक शतसागरोपमपृथक्त्व तक (निरन्तर पर्याप्त अवस्था में रहता है)। 1384. अपज्जत्तए पं० पुच्छा ? गोधमा ! जहण्णण वि उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं / [1384 प्र.] भगवन् ! अपर्याप्त जीव, अपर्याप्त-अवस्था में निरन्तर कितने काल तक रहता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 394 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org