________________ अठारहवा कायस्थितिपद] प्रसंज्ञीपर्याय की कालावस्थिति-जघन्य अन्तमुहर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक असंज्ञीजीव निरन्तर असंज्ञीपर्याययुक्त रहता है। जब कोई जीव संज्ञियों में से निकल कर असंज्ञीपर्याय में जन्म लेता है, वहाँ अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः संज्ञीपर्याय में उत्पन्न हो जाता है। उस समय वह अन्तमुहूर्त तक ही असंज्ञीपर्याय से युक्त रहता है / नोसंज्ञी-नो प्रसंज्ञी का अवस्थानकाल–नोसंजी-नोअसंज्ञी जीव केवली है और केवली का काल सादि-अपर्यवसित है।' बीसवाँ भवसिद्धिद्वार 1362. भवसिद्धिए णं भंते ! * पुच्छा। गोयमा ! अणादीए सपज्जवसिए / [1392 प्र.] भगवन् ! भवसिद्धिक (भव्य) जीव निरन्तर कितने काल तक भवसिद्धिकपर्याययुक्त रहता है ? [1362 उ.] गौतम ! (वह) अनादि-सपर्यवसित है / 1393. प्रभवसिद्धिए णं भंते 0 पुच्छा। गोयमा ! अणादीए अपज्जवसिए। [1363 प्र.] भगवन् ! अभवसिद्धिक (अभव्य) जीव लगातार कितने काल तक अभवसिद्धिकपर्याय से युक्त रहता है ? [1363 उ.] गौतम ! (वह) अनादि-अपर्यवसित है / 1394. गोभवसिद्धियणोप्रभवसिद्धिए गं० पुच्छा। गोंयमा ! सादीए अपज्जवसिए / दारं 20 // [1394 प्र] भगवन् ! नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धिक जीव कितने काल तक लगातार नोभवसिद्धिक-नोप्रभवसिद्धि-अवस्था में रहता है ? [1394 उ.] गौतम ! (वह) सादि-अपर्यवसित होता है। बीसवाँ द्वार // 20 // विवेचन-बीमा भवसिद्धिकद्वार-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 1392 से 1394 तक) में भवसिद्धिक, अभवसिद्धिक और नोभवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीवों के अवस्थान का कालमान प्ररूपित किया गया है। भवसिद्धिक का कालमान-भवसिद्धिक (भव्य) अनादि-सपर्यवसित (सान्त) है। भव्यत्व भाव पारिणामिक है, इसलिए वह अनादि है, किन्तु मुक्ति प्राप्त होने पर उसका सद्भाव नहीं रहता, इसलिए सपर्यवसित है। प्रभवसिद्धिक का कालमान-यह भी पारिणामिक भाव होने से अनादि है, और उसका (अभव्यत्व का) कभी अन्त नहीं होता। इसलिए अनन्त है। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org