Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अठारहवां कायस्थितिपद] [ 371 विवेचन बाईसवाँ चरम-अचरम द्वार–प्रस्तुत दो सूत्रों (1397-1398) में चरमजीव के स्व-स्वपर्याय में निरन्तर अवस्थान का कालमान प्ररूपित किया गया है / चरम-प्रचरम को परिभाषा-जिसका भव चरम अर्थात् अन्तिम होगा, वह 'चरम' कहलाता है / चरम का सरल अर्थ है-भव्यजीव / जो चरम से भिन्न हो, वह 'अचरम' कहलाता है / अभव्य जीव अचरम कहलाता है, क्योंकि उसका कदापि चरम भव नहीं होगा। वह सदाकाल जन्ममरण करता ही रहेगा / एक दृष्टि से सिद्ध जीव भी अचरम हैं, क्योंकि उनमें भी चरमत्व नहीं होता। इसी कारण अचरम के दो प्रकार बताये गए हैं-(१) अनादि-अनन्त और (2) सादि-अनन्त / इनमें से अनादि-अनन्त (सपर्यवसित) जीव अभव्य हैं और सादि-अपर्यवसित जीव सिद्ध हैं।' // प्रज्ञापनासूत्र : अठारहवाँ कायस्थितिपद समाप्त / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 395 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org