Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________ 334 ] [प्रज्ञापनासूत्र एकेन्द्रिय पर्याप्तजीव की लगातार अवस्थिति-एकेन्द्रिय पर्याप्त उत्कृष्ट हजार वर्ष तक एकेन्द्रिय पर्याप्त रूप से बना रहता है। इसका कारण यह है पृथ्वीकायिक की उत्कृष्ट भवस्थिति 22 हजार वर्ष की, अप्कायिक की 7 हजार वर्ष की, वायुकायिक की 3 हजार वर्ष की और वनस्पतिकायिक की 10 हजार वर्ष की भवस्थिति है। ये सब मिलकर संख्यात हजार वर्ष होते हैं / द्वीन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति-द्वीन्द्रिय पर्याप्त जीव उत्कृष्ट संख्यात वर्षों तक द्वीन्द्रिय पर्याप्त बना रहता है / द्वीन्द्रिय जीव की अवस्थिति का काल उत्कृष्ट बारह वर्ष का है, मगर सभी भवों में उत्कृष्ट स्थिति तो हो नहीं सकती। अतएव लगातार कतिपय पर्याप्त भवों को मिलाने पर भी संख्यात वर्ष ही हो सकते हैं, सैकड़ों या हजारों वर्ष नहीं। त्रीन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति-उत्कृष्ट संख्यात रात्रि-दिन तक त्रीन्द्रिय पर्याप्त इसी रूप में रहता है। त्रीन्द्रिय जीव की भवस्थिति उत्कृष्ट 46 दिन की होती है। अतएव वह लगातार कतिपय भव करे तो भी सब मिलकर वे संख्यात रात्रि-दिन ही होते हैं। चतुरिन्द्रिय पर्याप्त की कायस्थिति-उत्कृष्ट संख्यात मास तक वह चतुरिन्द्रिय पर्याप्तकपर्याय से युक्त रहता है, क्योंकि चतुरिन्द्रिय की उत्कृष्ट भवस्थिति 6 महीने की है। अतएव वह लगातार कतिपय भव करे तो भी संख्यात मास ही होते हैं।' चतुर्थ कायद्वार 1285. सकाइए णं भंते ! सकाइए त्ति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा! सकाइए दुविहे पण्णत्ते। तं जहा–अणादीए वा अपज्जवसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 [1285 प्र.] भगवन् ! सकायिक जीव सकायिकरूप में कितने काल तक रहता है ? [1285 उ.] गौतम ! सकायिक दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) अनादिअनन्त और (2) अनादि-सान्त / 1286. पुढविक्काइए णं 0 पुच्छा ? गोयमा! जहणेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं असंखेज्जं काल', असंखेज्जारो उस्सप्पिणिप्रोसप्पिणीनो कालो, खेत्तनो प्रसंखेज्जा लोगा। [1286 प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कितने काल तक लगातार पृथ्वीकायिक पर्याययुक्त रहता है ? [1286 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट असंख्यात काल तक; (अर्थात्) काल की अपेक्षा से-असंख्यात उत्सर्पिणी-अवणियों तक (पृथ्वीकायिक पर्याय वाला बना रहता है।) क्षेत्र से असंख्यात लोक तक / 1287. एवं प्राउ-तेउ-बाउक्काइया वि / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. बृत्ति, पत्रांक 378 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org