________________ अठारहवां कास्थितिपद] [ 343 सयोगी है / जो जीव भविष्य में कभी मोक्ष प्राप्त करेगा, वह अनादि-सान्त सयोगी है / वह भव्य जीव है। मनोयोगी को मनोयोगिपर्याय में कालस्थिति-मनोयोगी जीव जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लगातार मनोयोगीपर्याय से युक्त रहता है। जब कोई जीव औदारिककाययोग के द्वारा प्रथम समय में मनोयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके, दूसरे समय में उन्हें मन के रूप में परिणत करके त्यागता है और तृतीय समय में उपरत हो (रुक) जाता है, या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तब वह एक समय तक मनोयोगी रहता है / उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त तक मनोयोगी रहता है। जब जीव निरन्तर मनोयोग्य पुद्गलों का ग्रहण और त्याग करता रहता है, तब वह अन्तर्मुहूतं तक ही ऐसा करता है। उसके पश्चात् अवश्य ही जीव उससे स्वभावतः उपरत हो जाता है / तत्पश्चात् वह दोवारा मनोयोग्य पुदगलों का ग्रहण एवं निसर्ग करता है, किन्तु काल की सूक्ष्मता के कारण कदाचित उसे बीच के व्यवधान का संवेदन नहीं होता / तात्पर्य यह है कि मनोयोग्य पुद्गलों के ग्रहण और त्याग का यह सिलसिला अन्तर्मुहूर्त तक लगातार चालू रहता है। उसके बाद अवश्य ही उस में व्यवधान पड़ जाता है, क्योंकि जीव का स्वभाव ही ऐसा है। इसलिए यहाँ मनोयोग का अधिक से अधिक काल अन्तर्मुहूर्त कहा गया है।' वचनयोगी की कालस्थिति-वचनयोगी की भी कालस्थिति मनोयोगी के समान है / वह भी जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहर्त तक रहता है। जीव प्रथम समय में काययोग के द्वारा भाषायोग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है, द्वितीय समय में उन्हीं को भाषारूप में परिणत करके त्यागता है और तृतीय समय में वह उपरत हो जाता है, या मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार वाग्योगी को एक समय लगता है। इसका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहर्त है, क्योंकि अन्तर्महर्त तक वह भाषायोग्य पुद्गलों का ग्रहण-निसर्ग करता हुआ अवश्य उपरत हो जाता है / जीव का स्वभाव ही ऐसा है। काययोगी की कालस्थिति-काययोगी जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक लगातार काययोगी बना रहता है। द्वीन्द्रियादि जीवों में वचनयोग भी पाया जाता है। जब वचनयोग या मनोयोग भी होता है, उस समय काययोग की प्रधानता नहीं होती। अतः वह सादिसान्त होने से जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक काययोग में रहता है। उत्कृष्ट वनस्पतिकाल तक काययोग रहता है / वनस्पतिकाल का परिमाण पहले बताया जा चुका है। वनस्पतिकायिक जीवों में केवल काययोग ही पाया जाता है, वचनयोग और मनोयोग नहीं होता। इस कारण अन्य योग का अभाव होने से उनमें तब तक निरन्तर काययोग ही रहता है, जब तक उन्हें त्रसपर्याय प्राप्त न हो जाए। छठा वेदद्वार 1326. सवेदए णं भंते ! सवेदए ति० ? गोयमा ! सवेदए तिविहे पण्णत्ते / तं जहा-प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 अगादीए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहणेणं 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 382 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक 382-383 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org