Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ अठारहवां कायस्थितिपद [349 लोभकषायो जीव की कालावस्थिति-जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक लोभकषायी, लोभकषायी के रूप में निरन्तर रहता है। जब कोई उपशमक जीव उपशमश्रेणी का अन्त होने पर (ग्यारहवें गुणस्थान में) उपशान्तराग होने के बाद उपशमश्रेणी से गिरता है और लोभ के अंश के वेदन के प्रथम समय में ही मृत्यु को प्राप्त होकर देवलोक में उत्पन्न होता है तथा क्रोधकषायो, मानकषायी और मायाकषायो होता है, उस समय एक समय तक लोभकषायी पाया जाता है। प्रश्न किया जा सकता है कि जो युक्ति लोभकषाय के सम्बन्ध में दी गई है, उसी युक्ति के अनुसार क्रोधादि का भी जघन्य एक समय तक रहना क्यों नहीं बतलाया गया? इसका समाधान यह है कि यद्यपि उपशमश्रेणी से गिरता हा जीव क्रोधकषाय के वेदन के प्रथम समय में, मान के वेदन के प्रथम समय में अथवा माया के वेदन के प्रथम समय में मृत्यु पाकर देवलोक में उत्पन्न होता है तथापि स्वभाववशात् जिस कषाय के उदय के साथ जीव ने काल किया है, वही कषाय आगामी भव में भी अन्तर्मुहूर्त तक रहती है / इसी से अधिकृत सूत्र के प्रामाण्य से ज्ञात होता है कि क्रोध, मान और माया कषाय अनेक समय तक रहती हैं। अकषायी की कालावस्थिति-अकषायी-विषयक सूत्र अवेदक-सूत्र की युक्ति के अनुसार समझ लेना चाहिए। क्षपकश्रेणी प्राप्त अकषायी सादि-अनन्त होता है, क्योंकि क्षपकश्रेणी से उसका प्रतिपात नहीं होता। किन्तु जो उपशमश्रेणी-प्रारूढ़ होकर अकषायी होता है, वह सादि-सान्त होता है / अतः जघन्य एक समय तक अकषायपर्याय से युक्त रहता है / एक समय अकषायी होकर दूसरे समय में वह मर कर तत्काल (उसी समय में) देवलोक में उत्पन्न होता है और कषाय के उदय से सकषायी हो जाता है / इस कारण अकषायित्व का जघन्यकाल एक समय का है। उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक वह अकषायी रहता है, तत्पश्चात् उपशमश्रेणी से अवश्य ही पतित होकर सकषायी हो जाता है। पाठवाँ लेश्याद्वार 1335. सलेस्से णं भंते ! सेलेसे त्ति * पुच्छा ? गोयमा ! सलेसे दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-अणादोए वा प्रपज्जवसिए 1 अणादीए वा सपज्जवसिए 2 // [1335 प्र.] भगवन् ! सलेश्यजीव सलेश्य-अवस्था में कितने काल तक रहता है ? [1335 उ.] गौतम ! सलेश्य दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार-(१) अनादिअपर्यवसित और (2) अनादि-सपर्यवसित / 1336. कण्हलेसे णं भंते ! कण्हलेसे त्ति कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं अंतोमुत्तब्भइयाई / [1336 प्र.] भगवन् ! कृष्णलेश्या वाला जीव कितने काल तक कृष्णलेश्या वाला रहता है ? [1336 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक तेतीस सागरोपम तक (लगातार कृष्णलेश्या वाला रहता है)। 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय, वृत्ति, पत्रांक 386 2. प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनी टीका भाग 4, पृ. 408 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org