________________ अठारहवां कास्थितिपद | [355 [1350 प्र.] भगवन् ! मनःपर्यवज्ञानी कितने काल तक (निरन्तर) मनःपर्यवज्ञानी के रूप में रहता है ? [1350 उ.] गौतम ! (वह) जघन्य एक समय तक और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि (करोड़पूर्व) तक (सतत मन:पर्यवज्ञानीपर्याय में रहता है / ) 1351, केवलणाणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! सादीए अपज्जवसिए / [1351 प्र.] भगवन् ! केवलज्ञानी, केवलज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1351 उ.] गौतम ! (केवलज्ञानी-पर्याय) सादि-अपर्यवसित होती है। 1352. अण्णाणी-मइअण्णाणी-सुयअण्णाणी णं० पुच्छा ? गोयमा ! अण्णाणी मतिअण्णाणी सुयअण्णाणी तिबिहे पण्णत्ते। तं जहा--प्रणादीए वा अपज्जवसिए 1 प्रणादीए वा सपज्जवसिए 2 सादीए वा सपज्जवसिए 3 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहण्णणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं, अणंतानो उस्सपिणि ओसप्पिणीयो कालयो, खेत्तयो प्रवड्ढं पोग्गलपरियट्ट देसूणं। [1352 प्र.} भगवन् ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी कितने काल तक (निरन्तर स्व-पर्याय में रहते हैं ?) [1352 उ.] गौतम ! अज्ञानी, मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी तोन-तीन प्रकार के कहे गए हैं / वे इस प्रकार--(१) अनादि-अपर्यवसित, (2) अनादि-सपर्यवसित और (3) सादि-सपर्यवसित। उनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक (अर्थात्) काल की अपेक्षा से अनन्त उत्सर्पिणी-अवसपिणियों तक एवं क्षेत्र की अपेक्षा से देशोन अपार्द्धपुद्गल-परावर्त तक (निरन्तर स्व-स्वपर्याय में रहते हैं / ) 1353. विभंगणाणी शंभंते ! 0 पुच्छा? गोयमा ! जहणेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणाए पुब्धकोडीए अब्भ• इयाई / दारं 10 // {1353 प्र.] भगवन् ! विभंगज्ञानी कितने काल तक विभंगज्ञानो के रूप में रहता है ? [1353 उ ] गौतम ! जघन्य एक समय तक, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागरोपम तक (वह विभंगज्ञानी-पर्याय में लगातार बना रहता है।) दसवाँ द्वार // 10 // विवेचन-दसवाँ ज्ञानद्वार-प्रस्तुत आठ सूत्रों (सू. 1346 से 1353 तक) में सामान्य ज्ञानी, आभिनिबोधिक प्रादि ज्ञानी, अज्ञानी, मत्यादि अज्ञानी, स्व-स्वपर्याय में कितने काल तक रहते हैं ? इसका चिन्तन प्रस्तुत किया गया है / ज्ञानी-प्रज्ञानी को परिभाषा-जिसमें सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यग्ज्ञान हो, वह ज्ञानी कहलाता है; जिसमें सम्यग्ज्ञान न हो, वह अज्ञानी कहलाता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org