________________ 360] [ प्रज्ञापनासूत्र त्रिविध प्रसंयत---१. अनादि-प्रपर्यवसित-जिसने कभी संयम पाया नहीं और कभी पाएगा भी नहीं, 2. अनादि-सपर्यवसित—जिसने कभी संयम पाया नहीं, भविष्य में पाएगा, 3. सादि-सपर्यबसित-जो जीव संयम प्राप्त करके उससे भ्रष्ट हो गया है, किन्तु पुनः संयम प्राप्त करेगा / सादि-सान्त असंयत जघन्य अन्तमुहूर्त तक और उत्कृष्ट अनन्तकाल तक असंयतपर्याय से युक्त रहता है। अनन्तकाल (अपार्ध पुद्गलपरावर्त) व्यतीत होने के पश्चात् उसे संयम की प्राप्ति अवश्य ही होती है।" संयतासंयत एवं संयत का अवस्थानकाल–देशविरति की प्रतिपत्ति का उपयोग जघन्य अन्तमुहर्त का होता है / अतएव यहाँ जघन्यकाल अन्तमुहर्त प्रमाण कहा है। देशविरति में दो करण तीन योग आदि अनेक भंग होते हैं / अतः उसे अंगीकार करने में अन्तमुहर्त लग ही जाता है / सर्वविरति में सर्वसावध के त्याग के रूप में प्रतिज्ञा अंगीकार करने का उपयोग एक समय में भी हो सकता है, इसी कारण संयत का जघन्य काल एक समय कहा गया है / नोसंयत-नोप्रसंयत-नोसंयतासंयत-जो संयत भी नहीं, असंयत भी नहीं और संयतासंयत भी नहीं, ऐसा जीव सिद्ध ही होता है और सिद्धपर्याय सादि-अनन्त है। साकारोपयोग तथा अनाकारोपयोग युक्त का प्रवस्थानकाल–जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त का होता है / छद्मस्थ जीवों का उपयोग, चाहे वह साकारोपयोग हो अथवा अनाकारोपयोग, अन्तर्मुहूर्त का ही होता है / केवलियों का एकसामयिक उपयोग यहाँ विवक्षित नहीं है। चौदहवाँ आहारद्वार--- 1364. प्राहारए णं भंते ! 0 पुच्छा ? गोयमा ! पाहारए दुविहे पण्णत्ते / तं जहा–छ उमत्थाहारए य केवलिग्राहारए य / [1364 प्र.] भगवन् ! अाहारक जीव (लगातार) कितने काल तक श्राहारकरूप में रहता है ? [1364 उ.] गौतम ! आहारक जीव दो प्रकार के कहे हैं / यथा-छद्मस्थ-पाहारक और केवलो-आहारक / 1365. छउमस्थाहारए णं भंते ! छउमस्थाहारए त्ति कालमओ केवचिरं होइ? गोयमा ! जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं दुसमऊणं, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं, असंखेज्जाम्रो उस्सप्पिणि-प्रोसप्पिणोप्रो कालतो, खेत्ततो अंगुलस्स संखेज्जहभागं / [1365 प्र.] भगवन् ! छद्मस्थ-पाहारक कितने काल तक छद्मस्थ-आहारक के रूप में रहता है ? 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 392 2. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 392 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org