Book Title: Agam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Stahanakvasi
Author(s): Shyamacharya, Madhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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________________ 354] [प्रज्ञापनासूत्र अनन्तकाल तक वह मिथ्यादृष्टि बना रहता है और अनन्तकाल व्यतीत होने के पश्चात् उसे सम्यक्त्व प्राप्त होता है। अनन्तकाल-कालत: अनन्त उत्सपिणी-अवपिणियां समझनी चाहिए तथा क्षेत्रतः देशोन अपार्द्ध (क्षेत्र) पुद्गल परावर्तन सर्वत्र समझना चाहिए।' सम्यगमिथ्यादष्टि की कालावस्थिति-मिश्रदष्टि अन्तर्मुहर्त के पश्चात् नहीं रहती। अन्तमुहूर्त के पश्चात् मिश्रदृष्टि वाला जीव या तो सम्यग्दृष्टि हो जाता है, या मिथ्यादृष्टि हो जाता है, इसलिए सम्यगमिथ्यादृष्टि का जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त का ही समझना चाहिए। दसवाँ ज्ञानद्वार 1346. गाणी णं भंते ! गाणीति कालतो केवचिरं होइ ? गोयमा ! गाणी दुविहे पण्णत्ते / तं जहा-सावीए वा अपज्जवसिए 1 सादीए वा सपज्जबसिए 2 / तत्थ णं जे से सादीए सपज्जवसिए से जहणणं अंतोमहत्तं, उक्कोसेणं छाढि सागरोवमाई साइरेगाई। [1346 प्र.] भगवन् ! ज्ञानी जीव कितने काल तक ज्ञानीपर्याय में निरन्तर रहता है ? [1346 उ.] गौतम ! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गए हैं। वे इस प्रकार--(१) सादि-अपर्यबसित और (2) सादि-सपर्यवसित / इनमें से जो सादि-सपर्यवसित है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्ट कुछ अधिक छियासठ सागरोपम तक (लगातार ज्ञानीरूप में बना रहता है।) 1347. प्रामिणिबोहियणाणी णं भंते ! * पुच्छा? गोयमा ! एवं चेव / [1347 प्र.] भगवन् ! आभिनिबोधिकज्ञानी प्राभिनिबोधिकज्ञानी के रूप में कितने काल तक रहता है ? [1347 उ.] गौतम ! (सामान्य ज्ञानी के विषय में जैसा कहा है,) इसी प्रकार (इसके विषय में समझ लेना चाहिए।) 1348, एवं सुयणाणी वि। [1348] इसी प्रकार श्रुतज्ञानी (का भी कालमान समझ लेना चाहिए / ) 1346. रोहिणाणी वि एवं चेव / णवरं जहणेणं एक्कं समयं / [1349] अवधिज्ञानी का कालमान भी इसी प्रकार है, विशेषता यह है कि वह जघन्य एक समय तक ही (अवधिज्ञानी के रूप में रहता है।) 1350. मणपज्जवणाणी गं भंते ! मणपज्जवणाणीति कालमो केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहणणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं देसूर्ण पुवकोडिं / 1. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वत्ति, पत्रांक 388 2. वही, मलय. वृत्ति, पत्रांक 388-389 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org